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लघुकथाएँ - देशान्तर - तोरिज फराज़मंद(ईरानी)
बच्ची और समुद्र

हम गर्मियों में समुद्र के किनारे पर गए। मेरी बच्ची ने कहा, ‘‘अब्बू! समन्दर को अपने साथ घर लेते जाएं’’।
वापसी पर हमने समुद्र को बस की छत पर सवार कर लिया। सिर्फ़ मुझे और मेरी बच्ची को पता था कि हम समुद्र को साथ ला रहे हैं। रास्ते में समुद्र का साथ ला रहे हैं। रास्ते में समुद्र में तूफान आया। पानी बस की खिड़कियों से अन्दर आने लगा। मुसाफिर समझ रहे थे कि बारिश हो रही है। सिर्फ़ मैं और मेरी बच्ची जानते थे कि हमारे सिरों पर समुद्र ठाठें मार रहा है।
हमने समुद्र को अपने छोटे–से आंगन के एक कोने में जगह दे दी। शाम को मैं और मेरी बच्ची उसके किनारे बैठ जाते, मौजों को देखते और हंसते रहते।
‘‘अब्बू ! आप समन्दर को देख रहे हैं?’’
‘‘हां।’’
‘‘मौजों की आवाजें सुन रहे हैं?’’
‘‘हां।’’
‘‘आपको बादबानी कश्तियां नजर आ रही हैं?’’
‘‘हां।’’
‘‘अब्बू! बैठिए, देखते हैं।’’
एक दिन उसकी नन्ही–मुन्नी बिल्ली समुद्र में गिर पड़ी। बिल्ली आंगन के एक कोने में मरी पड़ी थी। मेरी बच्ची रो पड़ी। मैं भी दिल–ही–दिल में रो दिया। सिर्फ़ मुझे और मेरी बच्ची को पता था कि बिल्ली समुद्र के बगै़र रह गए हैं?’’
‘‘हां।’’
‘‘वहां की मछलियों से समन्दर छिन गया है?’’
‘‘हां।’’
‘‘वहां की कश्तियां समन्दर से महरूम हो गई हैं?’’
‘‘हां।’’
‘‘अब्बू! समन्दर को वापस छोड़ आएं?’’
‘‘उस रात को हम मौजों की आवाजें सुनते रहे। अगले दिन सिर्फ़ मुझे और मेरी बच्ची को पता था कि समुद्र पहाड़ों के उस पार चला गया है।
अनुवाद:हसन जमाल

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