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लघुकथाएँ - देश - विक्रमजीत नूर
श्राद्ध

मां समेत तीनों बच्चों को रात भूखे ही सोना पड़ा था। बच्चों का बाप देर रात तक काम से वापस नहीं आया था। उसके आने पर ही चूल्हा गर्म होने की संभावना हो सकती थी।
एक सेठ के मकान की खुली छत पर टीन की छत वाली बरसाती में यह परिवार बसर कर रहा था।
बड़ा बेटा आज कुछ जल्दी ही जग गया था। भाँति–भाँति के स्वादिष्ट पकवानों की महक जैसे उसके सांसों द्वारा उसके पूरे जिस्म में समा गई थी।
लड़के ने उठते ही बड़ी शिद्दत से पूछा, ‘‘माँ यह खुशबू कहाँ से आ रही है?’’
‘‘बेटे, नीचे सेठ जी, अपनी मां का श्राद्ध कर रहे हैं।’’
श्राद्ध क्या होता है माँ?’’ लड़के की उत्सुकता और बढ़ गई थी।
माँ ने विस्तार से समझाते हुए कहा, ‘‘हर वर्ष ब्राह्मणों को खीर–पूड़े, हलवा तथा तरह तरह का भोजन खिलाया जाता है। साथ में दान–पुण्य भी किया जाता है।’’
‘‘ब्राह्मणों को खाना क्यों खिलाते है माँ?’’
‘‘इसलिए कि स्वर्ग सिधार चुके उनके पितरों को यह खाना पहुँच सके।’’ माँ ने बेटे के पास बैठते हुए कहा, ‘‘आज सेठ ये सभी पकवान स्वर्ग में बैठी अपनी माँ के पास भेज रहा है।’’
हैरान होते हुए बेटे ने पूछा, ‘‘माँ, इतनी दूर?’’ लड़के ने अपना बाजू आकाश की ओर कर हाथ की उँगली भी सीधी कर दी।
‘‘हाँ बेटे, इतनी दूर।’’
लड़का थोड़ी देर के लिए सोच में पड़ गया। फिर उसने आँखें फैलाते हुए होठों पर जीभ फेरी व मुस्करा कर बोला, ‘‘माँ, ऊपर जाते–जाते थोड़ा हलवा व पूड़े अपनी छत पर गिर जाएँ तो मजा आ जाए।’’
माँ के चेहरे पर उदासी छा गई।

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