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मुआवजा
वह बोझिल कदमों से अस्पताल की सीढि़याँ उतर रहा था। उसके पीछे–पीछे उसकी पत्नी बिसूरती हुई चली आ रही थी। उसके दोनों हाथों के समानंतर फैलाव पर उसके सातेक साल के बच्चे की लाश बेकफन पसरी हुई थी। बाहर अब भी वर्षा हो रही थी।
पिछले कई दिनों से वर्षा थमी नहीं थी। और वह था तेज का मजदूर। चौथे दिन के ढलते–ढलते बच्चा भूख और तेज ज्वर से बिलबिलाने लगा था। घर में बचा–खुचा जो भी था, दाना–दाना लील लिया गया। बच्चे को पोलीथिन की छप्पर तले अधिक देर तक नहीं रखा जा सकता था। भीगी कथरी में बच्चे को लपेटकर सुबह ही वह सरकारी अस्पताल जा पहुँचा। बच्चे को भरती कर लिया गया। अभी उसके हाथों में दवाई की पर्ची तथा दूध, फल देने की हिदायतें पकड़ाई ही गई थीं कि बच्चे ने दम तोड़ दिया। डॉक्टर ने लाश जल्दी उठाने को कहते हुए सलाह दी, ‘‘करीब ही सरकारी राहत पड़ाव है। वहाँ चले जाओ। बरसात से हुई हानि का मुआवजा मिल जाएगा और तुम दोनों भी सुरक्षित रहोगे।’’
वह बच्चे को उठा ही रहा था कि नर्स ने कुढ़ते हुए–सा कहा, ‘‘बच्चा बरसाती पानी में डूबकर मरा होता तब तो मुआवजा मिलता। यह तो भूख से मरा है।’’
अंतिम सीढ़ी पर पहुँचते–पहुँचते उसकी पत्नी के खाली पेट में जमकर मरोड़ उठा। रुलाई की वजह से नस–नस में ऐंठन–सी हो रही थी। उसने पत्नी को दिलासा दी और दोनों भीगते हुए ही घुटने भर पानी में चल पड़े। सड़क जनशून्य थी। सामने से एक लॉरी आदमी, औरतों, बच्चों से ठसाठस भरी आ रही थी। उसने उसे रोकना चाहा, मगर तभी लॉरी लड़खड़ाई तथा बाईं ओर बनी दीवार से टकराकर अधउलटी रुक गई। कई जिस्म नीचे पानी में गिरकर छटपटाने लगे। कोहराम मच गया। वह बच्चे की लाश को फेंककर छटपटाते लोगों के बीच खड़ा हो चिल्ला पड़ा ‘‘हाय मेरा बच्चा, मेरी औ.....र...त।’’
उसकी निगाहें पीछे आती पत्नी को ढूँढ रही थीं और उसकी पत्नी अपने ही करीब तैरती बच्चे की लाश से परे हिलोरें खाती डबलरोटी को झपटने की कोशिश कर रही थी।


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