वे बहुत परेशान थे। उनके मंत्रिपरिषद का कार्यकाल समाप्त होने को था। पिछले कई वर्षो से उसने जी–जान से मंत्रीजी की सेवा की थी मंत्रीजी चाहते थे कि वे उसका भला करके उसकी सेवा से उऋण हो जाएँ। मंत्रीजी के पास अन्य भी बहुत से लोग थे। सेवा उन लोगों ने भी की थी। लेकिन इन सबने सेवा के बदले भरपूर मेवा भी प्राप्त किया था–सीधे मंत्रीजी से कहकर, नहीं तो उनसे बिना पूछे,उनके नाम का इस्तेमाल करे। लेकिन एक माधव राम ही ऐसा था कि हमेशा गर्दन नीची किए हुए अपने काम में लगा रहता। मज़ाल है कि एक भी काम में जरा–सी ढिलाई हो जाए। उसके काम से वे बहुत प्रभावित थे।
मंत्रीजी बीच–बीच में उसे टटोलते भी रहते–
‘‘माधव राम। कैसे हो?’’
‘‘ठीक हूं सर।’’
‘‘घर में बाल –बच्चे कैसे हैं?’’
‘‘सब ठीक है सर।’’
‘‘किसी चीज़ की कोई ज़रूरत तो नहीं है?’’
‘‘नहीं सर।’’
‘‘कभी कुछ ज़रूरत हो तो बताना।’’
‘‘यस सर।’’
लेकिन आज तक उसने कुछ बताया नहीं। ऐसा नहीं था कि माधव राम इतना समर्थ व्यक्ति था कि उसे किसी सहारे की आवश्यकता ही नहीं होती थी। मंत्रीजी को मालूम है कि ऐसे कई अवसर आए, मसलन माधव राम के बेटे का स्कूल में दाखिला होने का अवसर, उसके एक मात्र बेटे का अस्पताल में इलाज कराने का अवसर आदि–आदि, किंतु माधव राम ने कभी अपने हाथ नहीं फैलाएँ मंत्रीजी को उसकी ये समस्याएँ अपने दूसरे मातहतों के ज़रिए मालूम होती रहती थीं। वे स्वयं भी पता करते रहते थे। लेकिन उन्होंने भी वह हठ ठान लिया था कि जब तक वह खुद नहीं कहेगा, तब तक वे उसकी मदद नहीं करेंगे। मंत्रीजी को कभी–कभी तो यह लगने लगता कि यह माधव राम का अहम है। अन्यथा ऐसा क्या हो गया कि दस साल में उसे एक बार भी मेरी जरूरत नहीं हुई। सच तो यह है कि माधव राम के साथी दबी जुबान से उसे घमंडी कहते भी थे। जबकि वे जानते थे कि वह ऐसा है नहीं। वह तो एकदम सीधा–सादा गऊ आदमी था–अपने काम से काम।
आज सूर्य प्रताप सिंह जी के कार्यकाल का अंतिम दिन था। मतलब यह कि आज ही वह अंतिम दिन था, जब वे माधव राम के लिए कुछ कर सकते थे। अपनी इस परेशानी को रात में वे अपनी पत्नी तक से बता चुके थे, जबकि सामान्य तौर पर वे परेशानियों की चर्चा किसी से भी नहीं करते थे। आज कार्यकाल के आखि़री दिन माधव राम उनके लिए एक समस्या बन गया था।
शाम के चार बज गए थे। माधव राम अब तक मंत्रीजी के पास नहीं आया था। मंत्रीजी की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। अंतत: उन्होंने ही माधव राम को बुलवाया।
‘‘माधव राम,कैसे हो तुम?’’
‘‘ठीक हूँ, सर।’’
‘‘घर में बाल बच्चे कैसे हैं?’’
‘‘सब ठीक हैं सर।’’
मंत्रीजी थोड़ा रुके। उन्हें लगा कि यह प्रश्न–उत्तर संवाद तो पहले की ही भाँति चल रहा है। ऐसे में इच्छित परिणाम तक भला कैसे पहुँचा जा सकेगा। अत: उन्होंने संवाद का स्वरूप थोड़ा बदला–
‘‘तुम्हें मालूम है कि आज मेरे कार्यकाल का आखि़री दिन है?’’
‘‘मालूम है सर।’’
‘‘माधव , देखो, आज तक तुमने अपने लिए मुझसे कुछ भी नहीं कहा। मैं चाहता हूँ कि आज तुम अपने लिए कुछ करने को कहो।’’
‘‘यस सर।’’
इसके बाद खामोशी छा गई। माधव राम गर्दन झुकाए पूर्ववत् खड़ा रहा। यह चुप्पी सूर्य प्रताप सिंह के लिए असह्य हो उठीं वे गरज पड़े–‘‘माधव राम, तुमने मेरा जितना बड़ा अपमान किया है, उतना और किसी ने भी नहीं किया।’’
सू्र्यप्रताप सिंह गुस्से में काँप रहे थे। उन्होंने पहली बार माधव राम की आंखों को डबडबाया हुआ देखा। उसके आंसू की बूंदें कालीन पर टपकी। उसने रुंधे गले से कहा–‘‘गलती के लिए माफी चाहूँगा सर।’’
माधव राम जा चुका था। सूर्य अस्त होने को था। सूर्यप्रताप का मन व्याकुल था। वे अपनी कुर्सी से उठे और आंसू की बूंदों से गीले हो गए गलीचे के पास जाकर खड़े हो गए। उन्होंने इधर–उधर देखा। कोई नहीं था। वे जल्दी से झुके और गीले कालीन पर अपने हाथ की उंगलियां छुआकर जल्दी से माथे पर लगा ली।
आज सूर्यप्रताप सिंह ने अपने जीवन में पहली बार किसी के सामने पराजय और असहायता का अनुभव किया था।