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लघुकथाएँ - देश - विनायक
नाव

लड़के ने कागज की नाव पानी में डाली तो वह हवा में उलट गई और उसमें पानी भर गया। लड़का भागकर आंगन में मां के पास पहुँचा और बोला, ‘‘मां, दूसरी बना दो, वह तो डूब गई।’’
उसकी विधवा मां उदास हो गई। फिर धीरे से बोली, ‘‘बेटे, नाव तो मेरी भी डूब चुकी है।’’
‘‘तुम्हारी नाव कैसे डूबी मां?’’ लड़के ने आश्चर्य व्यक्त किया, क्योंकि उसने मां के पास कभी कागज की नाव नहीं देखी थी। उसकी मां ने शून्य में देखते हुए धीरे से कहा, ‘‘एक दिन तूफान आया, बस, डूब गई।’’
‘‘तुम दूसरी नाव क्यों नहीं बनातीं?’’ लड़का अपने नन्हें हाथों से मां का मुख ऊपर उठा पूछने लगा। मां की आँखों में आंसू छलक आए। उन्हें पोंछती हुई वह इस तरह बोली जैसे अपने से ही कह रही हो, ‘‘अब मेरी दूसरी नइया नहीं बन सकती, मुन्ने, क्योंकि इस जीवन में तुम आ चुके हो और मेरा उपयोग हो चुका है....औरत एक वस्तु है बेटे, जो मिट्टी के बर्तन की तरह जूठी होती है.....।’’
लड़के की समझ में कुछ न आया। उसने दूर एक बादामी कागज देखा और दौड़कर उसे उठा लिया। फिर मां की गोद में सिमटकर बैठ गया और कागज को जमीन पर फैलाते हुए बोला, ‘‘तुम रुको मां, मैं अभी नाव बनाता हूँ।’’

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