बच्चा गेंद खेलना चाहता था। माँ को कोई एतराज नहीं था और बाप घर में था नहीं। ठंड के दिन थे। सुबह का वक्त था और गेंद कोने में चुपचाप पड़ी रहना चाहती थी। वह चाहती नहीं थी कि कोई उसे छेड़े। दस बजे तक तो वह बिलकुल हिलना–डुलना नहीं चाहती थी, मगर उसका स्वामी था बच्चा। वह माननेवाला था भला? क्या करती, हिलने–डुलने दौड़ने लगी। गुस्सा जताने के लिए एक बार गड्ढे में भी जा गिरी। बच्चा रोने लगा तो माँ ने गेंद निकाली, मगर गेंद का गुस्सा खत्म नहीं हुआ था। इस बार वह नाली में जा गिरी। फिर निकाला तो फिर सड़क पर दौड़ती चली गई और राहगीर के पैर का धक्का खाकर आगे चली गई।
माँ ने बच्चे को समझाया कि आज गेंद बड़ी शैतानी कर रही है। आओ, इसके साथ कमरे में खेलें। एक तरफ से माँ गेंद लुढ़काएगी, दूसरी ओर से बच्चा। लेकिन यह सुस्त खेल बच्चे को ज्यादा देर तक पसंद नहीं आया। हालांकि गेंद को इस तरह की छेड़छाड़ फिर भी अच्छी लग रही थी, बल्कि अब उसकी सुस्ती उड़ गई थी और उसका भी खेलने को मन हो रहा था। बच्चा गेंद की इच्छा से बेखबर था। गेंद अपनी खेलने की इच्छा जताने के लिए लुढ़ककर घर के बीचोंबीच ऐसे आ गई कि बच्चा कहीं से भी आए–जाए तो उसकी निगाह जरूर गेंद पर पड़े। बच्चा गेंद देखेगा तो जरूर उसके साथ छेड़खानी करेगा। गेंद ने तय कर लिया था कि बच्चा अगर गलती से भी उसके साथ छेड़खानी करेगा। गेंद ने तय कर लिया था। कि बच्चा अगर गलती से भी उसे टल्ला देगा तो वह ऐसे लुढ़कती–लुढ़कती दूर जाएगी कि बच्चे को अपनी ताकत पर कौतूहल होगा। कौतूहल में वह फिर खेलने लगेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अलबत्ता वह गेंद माँ के पांवों के नीचे जरूर आई। माँ ने बच्चे से पूछा कि वह गेंद खेलेगा? बच्चे ने कहा, ‘‘नहीं माँ, गेंद खिलौने के डिब्बे में रख दो।’’
गेंद ने डिब्बे में पहले से ही विराजमान शेर से कहा,खरगोश से कहा, भालू से कहा, हिरण से कहा, सेठ–सेठानी से कहा, बंदर से कहा कि आओ, खेलो मेरे साथ, पर सब सुस्ती के मारे राजी नहीं हुए। गेंद ने कचरा ढोने वाले ट्रक से कहा कि वह ही जरा–सी सैर करा दे, मगर ट्रक भी अकड़ गया। दुखी गेंद ने जब देखा कि कोई उसके साथ खेलने को राजी नहीं है तो वह उठी और उसने मगन होकर पोहे खाते बच्चे के सिर पर टप्पा मारा।
बच्चे को गेंद की यह शैतानी बिलकुल पसंद नहीं आई। बच्चा भी उठा और उसने गेंद को सजा देने के लिए उसे निशाना साधकर दीवार पर मारा। हंसती–खिलखिलाती गेंद दुगने उत्साह से वापस आई और उसकी पोहे की प्लेट में ही गिर पड़ी। उसने फौरन पोहे के कई दाने अपने पर चिपका लिए और कई नीचे जमीन पर गिरा दिए।
बच्चा गेंद पर गुस्सा तो बहुत हुआ, मगर उस समय सबसे ज्यादा चिंता उसे पोहे की थी। गेंद बच्चे को छेड़कर बहुत खुश हुई।
शाम को जब बच्चे ने गेंद की शिकायत अपने पापा से की तो गेंद डर गई। आँखें मिचमिचाकर सब सुनती रही और डरती रही कि कहीं उसे घर से निकाल न दिया जाए। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। बच्चे को खिलाया भी और चिढ़ाया भी। रूठी भी और नाची भी। सुस्ती भी दिखाई और चुस्ती भी। एक बार तो गेंद महारानी की तरह छत पर जा बैठी और बच्चे को अँगूठा दिखाया। एक बार कँटीली झाड़ी में जाकर बैठ गई। एक बार पानी के पतीले में घुस गई। एक बार बक्सों की आड़ में छिप गई।
हर जगह से उसे निकाला गया और बच्चे के हाथ में दिया गया। एक बार बच्चे ने उसके ऊपर बैठने की कोशिश की। बच्चे ने जैसे ही अपना सारा जोर गेंद पर लगाया, गेंद ने शैतानी की और लपककर भाग गई, लेकिन बच्चे ने हार नहीं मानी। वह फिर गेंद पर बैठा। गेंद ने फिर उसे गिरा दिया।
चार–छह बार में गेंद की हड्डियाँ–पसलियाँ इतनी दुखने लगीं कि वह तंग होकर एक नाली में भाग गई। उसे क्या पता था कि नाली में तेज बहाव है। वह नाली से नाले में चली गई। उसे ताजिंदगी वहीं रहना पड़ा। उसने बच्चे को बहुत पुकारा–बहुत पुकारा, मगर बच्चा...