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लघुकथाएँ - संचयन - विष्णु नागर
झूठी औरत
एक
‘‘मैं तंग आ गई हूँ इन बच्चों से। जान लू लूँगी इनकी।’’ यह कहने वाली माँ अभी–अभी अपने पति से झगड़ रही थी, ‘‘बिना बच्चों के अकेले कहीं नहीं जाऊँगी। मेरा मन इनके बिना नहीं लगता है।’’

दो
‘‘लोग तो एक–एक पैसे के लिए जान छोड़ते हैं। हमीं क्यों छोड़ें अपने दस रुपए। बिना मांगे पड़ोसी देनेवाले नहीं। हमें बेशर्म होकर माँगना पड़ेगा।’’
यही औरत थोड़ी देर पहले अपने पति से कह रही थी, ‘‘विचारों की हालत खस्ता है। मुझसे तो देखा नहींे जातां हम और तो क्या कर सकते हैं? उसके बच्चों को किसी न किसी बहाने घर बुलाकर खाना खिला देती हूँ।’’
तीन
‘‘तुमने दस की फिजूलखर्ची की, मैं बीस की करूँगी। मैं अब चौदह रुपए की सड़ी चप्पलें नहीं लाने वाली। चालीस–पचास की लाऊँगी।’’
यही औरत सुबह कह रही थी, ‘‘मुझसे नहीं होती तुम्हारे जैसी फिजूलखर्ची। मैं नई चप्पल कतई नहीं लानेवाली। दो कीलें लगवा लूँगी तो यह चप्पल महीने–दो महीने तो और चल जाएगी।’’


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