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लघुकथाएँ - देश - यशपाल
सीख

पिछले वर्ष खन्ना के यहाँ गुलदाउदी के गमले खूब बन पाए थे। सबसे बढि़या पाँच–छह गमले लॉन के बीचोंबीच रखवा दिए थे। दिसंबर का अंतिम रविवार था। दोपहर में कपूर आ गया। खन्ना ने बेंत की दो कुर्सियाँ गमलों के समीप डलवा दीं, जाड़े की धूप का मजा लेने के लिए। दोनों पुराने अंतरंग मित्र, पूरी बेतकल्लुफी है।
कपूर का पाँच बरस का बेटा राजू भी आ गया था। कुर्सियों के समीप ही अपनी समवयस्का खन्ना की बेटी बबली के साथ कंचे खेल रहा था। राजू की कुछ ऐसी आदत है कि जिस काम के लिए बरजा जाए, जरूर करना चाहता है।
कपूर अपनी परेशानी बता रहा था, ‘‘जुलाई में चूक गए। राजू मां के साथ पंजाब चला गया था। चार मास से सिर मार रहे हैं। किसी कान्वेंट या अच्छे स्कूल में जगह नहीं मिल रही। म्युनिसिपल और सरकारी स्कूलों का हाल तो जानते हो। वहाँ बच्चे बदतमीजी और गंदगी के सिवा क्या सीखेंगे....’’ कनखियों से नजर बेटे की ओर थी। समीप की फूल थे।
राजू खेल में ठिठका। उसका ध्यान समीप एक बहुत बड़े फूल की ओर चला गया था। फूल था ही ऐसा कि सबका ध्यान अटके। कपूर ने तर्जनी उठाकर बेटे को चेतावनी दी, ‘‘खबरदार, फूल नहीं छूना।’’
राजू पल–भर झिझका और उसने लपककर फूल की डंडी मरोड़ दी।
कपूर बेटे की उद्दंडता से क्षुब्ध हो गया, ‘‘उल्लू!’’
‘ओफ्फ!’’ खन्ना ने मुस्कान दबाकर मित्र को टोका, ‘‘गलत बात सिखाते हो बच्चे को! कहो, उल्लू का पट्ठा।’’

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