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अन्तिम सवारी

वे इतने अभावग्रस्तता के दिन थे कि ईमानदारी जैसे शब्द व्यवहारिक जीवन में बेमानी जान पड़ते थे। उस दिन काम से लौटते हुए रात का खाना रास्ते में ही एक ढाबे में खाने के बाद उसने आज ही मिली महीने भर की पगार में से 50 रु. का नोट ढाबे के मालिक की तरफ बढ़ाया तो उसे पचास के एक और दस–दस के चार ताजे नोट वापस मिले। क्षण भर के लिए जो हैरानी उसके चेहरे पर उतर आई थी उसे एक कदम पीछे हटकर दूसरे क्षण उसने वापस कर दिया और ढाबे से बाहर निकलते ही घर की तरफ जाने को मुड़ गया।
थोड़ी दूर पर खड़े पर रिक्शे पर नजर गई तो उसे लगा कि क्यों नहीं आज वह रिक्शे से ही घर चला जाए। रोज तो पैदा ही है। रिक्शे को हॉक लगाई तो रिक्शा सामने आकर खड़ा हो गया।
‘‘पश्चिम दरवाजा का कितना लेते हो?’’
‘‘बारह रु. दे देना, यहां से दो कोस है।’’
‘‘दो कोस तो है, पर आज क्या नया जा रहा हूं, दस रु.ले लेना।’’
‘‘ठीक है बाबू चलोे, उधर ही मेरा घर है, अन्तिम सवारी आपको ही लेकर चलता हूं।’’
रात्रि के आठ बज रहे थे, रास्ता लगभग अंधेरे में डूग चुका था। सड़कों के किनारे छोटी–मोटी अन्तिम दुकानें भी बन्द हो रही थी। इक्का–दुक्का चाय –पान की खुली दुकानों से आती रोशनियां टूटी सड़क के एक खास दायरे में ही कांपकर रह जातीं। रिक्शा खींचता हुआ वह सोचने लगा कि अपने मुहल्ले के तो हर रिक्शा चढ़नेवाले आदमी को वह पहचानता था, जिससे कुछ बराबर चलने वाले थे, कुछ कभी–कभी और कुछ कभी नहीं। वह याद करने लगा यह आदमी तो ‘कभी नहीं’ वालों में ही है। खैर इससे उसका क्या, थोड़े है कि पैसा नहीं देगा, दस तो देगा ही....
दूसरी तरफ,रिक्शा पर बैठा वह आदमी भी अंधेरे रास्ते में सोचने के सिवाय कुछ और नहीं कर सकता था....महीने भर काम करने की पगार मिली थी.....उसने ढाबे में खाना खाया....उसके पास जितने रुपए होने चाहिए थे....लेकिन हैं दो सौ नब्बे रुपए...रिक्शावाले को पैसे देगा, उसके बाद भी उसके पास दो सौ अस्सी रुपए बचेंगे...क्या कमाल है...ऐसा तो कभी नहीं होता था....लेकिन उसने किसी से छीनकर थोड़े ही लिया है....मैं भी किसी को ज्यादा दे दूं तो क्या वह लौटा देगा....चलता है...बेईमानी थोड़े है...
रिक्शे में जल रही बत्ती की मरियल रोशनी में उसे लगा उसकी गली का मुहाना आ गया है जहां से उसे कुछ दूर अन्दर पैदल चलकर जाना है। रिक्शावाले को उसने रोकने को कहा, उतरते हुए उसके हाथ में दस रुपए का एक नोट थमाया और अपनी परिचित गली में तेजी से बढ़ गया, बीस–पच्चीस कदम में वह अपने घर में होगा, अन्य दिनों से कुछ ज्यादा ही खुश....उसे लगा अंधेरे में उसके पीछे कोई आ रहा है...शायद रिक्शावाला ही...हाथ में रिक्शे की मरियल बत्ती लिए हुए...ये लोग कब मानने लगे....उसने रिक्शेवाले को एक भद्दी–सी गाली दी...ये दो रुपए और लेकर ही रहेंगे...दो रुपए का सिक्का टटोलने के लिए पॉकेट में हाथ डालकर उसने सशंकित पीछे मुड़कर देखा। रिक्शावाला उसे पुकार रहा था और अबतक उसके पास पहुंच चुका था, ‘‘एक बाबू,आपने दस के बदले हमको पचास को नोट दे दिया है।’’ रिक्शेवाले ने अपने एक हाथ में लटकी मरियल रोशनी में दूसरे हाथ में नोट को निकट लाकर उसे दिखाते हुए अत्यन्त सहज भाव में कहा।
कथादेश फरवरी अंक–2002

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