गरीब बन्ने का बारह साल का लड़का पेट–दर्द से परेशान था और शरीर से बहुत कमजोर होता गया था। टोना–टोटका और घरेलू इलाज के बावजूद हालत बिगड़ती गई थी। दर्द उठता तो लड़का चीखना, और मां–बाप की आंखों में आंसू आ जाते। एक रात जब लड़का ज्यादा बदहवास हुआ, तो मां ने बन्ने को बच्चे का पेट दिखलाया। बन्ने को देखा–छोटा कछुए के आकार–सा कुछ पेट के अन्दर से थोड़ा उठा हुआ है और हिल रहा है। गांव के डॉक्टर ने भी हैरत से देखा और सलाह दी कि लड़के को शहर को अस्पताल में ले जाओ।
बन्ने पत्नी के जेवर बेच लड़के को शहर ले आया। अस्पताल के सर्जन को भी अचरज हुआ–पेट में कछुआ! सर्जन ने जब पेट को ऊपर से दबाया तो कछुए–जैसी वह चीज इधर–उधर होने लगी और लड़के के पेट का दर्द बर्दाश्त के बाहर हो गया। सर्जन ने बतलाया–‘‘लड़के को बचाना है, तो प्राइवेट से आपरेशन के लिए दो हजार रुपए का इन्तजाम करो।’’
दो हजार! बन्ने की आंखें चौंधियां गई। दो क्षण सांस ऊपर ही अटकी रह गई। न! लड़के को वह कभी नहीं बचा सकेगा। उसे जिस्म की ताकत चुकती लगी। वह बेटे को लेकर अस्पताल के बाहर आ गया और सड़क के किनारे बैठ गया।
लड़के को कराहता देखकर किसी ने सहानुभूति से पूछा–‘‘क्या हुआ है?’’
बन्ने बोला–‘‘पेट में कछुआ है साहब!’’
‘‘पेट में कछुआ?’’ मुसाफिर को अचरज हुआ।
‘‘हां साहब! कई महीनों से है।’’ और बन्ने ने लड़के का पेट दिखलाया। पेट पर उंगलियों का टहोका दिया, तो वह कछुए–जैसी चीज ज़रा हिली। बन्ने का गला भर गया–‘‘आपरेशन होगा साहब! डॉक्टर दो हजार मांगता है। मैं गरीब आदमी....’’ और वह रो पड़ा।
तब कई लोग वहां खड़े हो गए थे। उस मुसाफिर ने दो रूपए के नोट निकाले और कहा–‘‘चन्दा से इकट्ठा कर लो और लड़के का आपरेशन करा लो।’’
फिर कई लोगों ने एक–एक दो–दो रुपए और दिए। जो सुनता टिक जाता–पेट में कछुआ?...हां जी चलता है...चलाओ तो!
बन्ने लड़के के पेट पर उंगलियों से ठोकर देता। कछुआ हिलता। लड़के के पेट का दर्द आंखों में उभर आता। लोग एक, दो या पांच के नोट उसकी ओर फेंकते–‘‘आपरेशन करा लो भाई। शायद लड़का बच जाए!’’
सांझ तक बन्ने के अधकुर्ते की जेब में नोट और आंखों में आशा की चमक भर गई थी।
अगले दिन बन्ने उस बड़े शहर के दूसरे छोर पर चला गया। वह लड़के के पेट पर टकोरा मारता। पेट के अन्दर का कछुआ ज़रा हिलता। लोग प्रकृति के इस मखौल पर चमत्कृत हाते और रुपए देते। बन्ने दस दिनों तक उस शहर के इस नुक्कड़ से उस नुक्कड़ पर पेट के कछुए का तमाशा दिखलाता रहा और लोग रुपए देते रहे। बीच में लड़के की मां बेटे को देखने आती। बन्ने उसे रुपए थमा देता।
लड़के ने पूछा–‘‘बाबू, आपरेशन कब होगा?’’
बन्ने बोला–‘‘हम लोग दूसरे शहर में जाकर रुपए इकट्ठे करेंगे।’’ फिर कुछ सोचता हुआ बोला–‘‘मुन्ने, तेरा क्या खयाल है कि पेट चीरा जाकर भी तू बच जाएगा? डॉक्टर भगवान तो नहीं। थोड़ा दर्द ही होता है न? बर्दाश्त करता चल। यों जिन्दा तो है। मरने से कित्ती देर लगती है? असल तो जीना है।’
लड़का कराहने लगा। उसके पेट का कछुआ चलने लगा था।