लोकल पेसेन्जर ट्रेन से रोज सुबह महानगर को जाते समय एक सज्जन लगभग रोज ही मेरे आसपास बैठे मिलते थे। मेरी ही तरह, अप–डाउन करने वाले वे सज्जन मुझे बड़े रहस्यमयी प्रतीत होते थे। मितभाषी, हल्की सफेद दाढ़ी और सूट बूट धारी, वैसे तो लगते कोई बड़े अधिकारी ही थे। जब गाड़ी स्टेशन से छूट कर अगले सिग्नल पर किसी तकनीकी कारणवश धीमी हो जाती थी तो वे हमेशा, बगैर चूके, अपनी सीट से उठकर खड़े हो जाया करते थे और सामने दिख रहे एक विशाल परन्तु खाली भूखण्ड को देखकर कुछ बुदबुदाया करते थे। ट्रेन की खिड़की में से, उस विशाल भूखण्ड पर सिवाय एक मंदिर ओर कुछ दूरी पर एक दरगाह के अलावा कुछ दिखता नहीं था। समझ से परे था कि वो सज्जन किसको नमन कर रहे हैं, मंदिर को या दरगाह को?
काफी दिनों बाद जाकर जिज्ञासा शांत तो हुई पर जवाब चौंकाने वाला मिला, ‘‘भैया न तो मैं मंदिर को हाथ जोड़ता हूँ न दरगाह को! मैं तो उस पवित्र भूमि को प्रणाम करता हूँ, नमन करता हूँ जहाँ पहले एक विशाल कपड़ा मिल थी और जिसमें मेरे पूज्य पिताजी मुलाजिम थे। इसी जमीन की बदौलत आज मैं एक उच्च पद पर हूँ। रोज गाड़ी जब यहाँ से गुजरती है तो मैं अपने स्वर्गीय पिता और उस ‘‘स्वर्गीय’’ कपड़ा मिल को याद कर लेता हूँ, बस!’’