प्रियतमा की आकस्मिक मृत्यु ने मूर्तिकार को विक्षिप्त कर डाला। वह दूर निकल गया और वन–वन भटकने लगा। उसके कंधे पर सदा वह झोला लटकता रहता, जिसमें उसके छेनी–हथौड़े थे।
एक दिन निर्जन वन में उसने एक अदभुत चट्टान देखी। उसे लगा, उस चट्टान के भीतर उसकी प्रियतमा छिपी बैठी है। वह उसे तराशने लगा। चार दिनों में उसकी प्रियतमा एक जीवंत प्रतिमा बनी मुस्करा रही थी। वह आनंद से नाचने लगा और फिर अपनी प्रियतमा को अपने मन की सारी बातें सुनाने लगा। सहसा वह आशंकित हो उठा। उसने ध्यान से प्रियतमा की आँखों और होंठों को देखा। वहां जीवंतता तो थी, मगर जीवन नहीं था। उसने प्रतिमा को पकड़कर झिंझोड़ा, उसका नाम ले–लेकर चिल्लाया, मगर प्रियतमा ने कोई उत्तर नहीं दिया। बस, मूर्तिकार को एकटक देखती–मुसकाती रही।
मूर्तिकार की विक्षिप्तता बढ़ गई। उसने प्रतिमा को धक्का दिया तो वह पीछे के भूखंड में बने गड्ढे में लुढ़क गई। मूर्तिकार ने उसके ऊपर मिट्टी डालते हुए कहा, ‘‘शव के लिए यही स्थान उचित है।’’
मूर्तिकार देश–देशांतर भटकने लगा। पंद्रह वर्ष बीत गए। उसका एक हितैषी उसे एक मंदिर में ले गया, ताकि देवी माँ उसकी निश्छलता देखकर अपने प्रताप से उसकी विक्षिप्तता हर ले। देवी की ख्याति दूर–दूर तक विस्तार पर रही थी। कई लोग देवी को प्रसन्न करने के लिए बलि भी देते थे।
देवी को देखते ही मूर्तिकार चीखा, ‘‘तू...? तू यहां कैसे पहुँच गई? तुझे तो मैंने धरती में गाड़ दिया था! कौन लाया तुझे यहाँ? निरीह प्रणियों की बलि लेकर तू यहाँ वरदायिनी बनी बैठी है!...मेरी निष्प्राण रचना...कैसी निर्लज्जता से मुस्करा रही है...’’ कहते हुए उसने थैले में से हथौड़ा निकाला और उसे दोनों हाथों में लेकर देवी के चेहरे पर आघात कर दिया। पुजारी,भक्त और महंत के अनुचर भौचक्के रह गए। उन्होंने तत्काल उसे दबोच लिया और बहर खींचकर उसे प्रबल प्रहारों से पीटने लगे। एक पुरोहित ने उसे शाप देते हुए कहा, ‘‘तू हर जन्म में नरक में सड़ेगा...दुष्ट तूने माँ का सुंदर चेहरा विकृत कर डाला। वन में अवतरित महादेवी को कितने यत्नों से महंत जी ने यहां मंदिर में प्रतिष्ठित किया था...तेरा नाश हो, राक्षस!’’
धर्माधिकारी ने मूर्तिकार द्वारा किए गए पाप के दंडस्वरूप निर्णय सुनाया, ‘‘जिन हाथों से इसने देवी पर प्रहार किया, इसके वही दोनों हाथ काट डाले जाएँ। इससे देवी का कोप शांत होगा और यह पापी फिर किसी प्रतिमा पर प्रहार भी नहीं कर सकेगा।’’
मूर्तिकार शांत था। ऐसा लगता था कि इस घटना ने उसकी विक्षिप्तता हर ली है। अब वह यथार्थ की भूमि पर था। उसने निर्णायक अधिकारी से कहा, ‘‘यदि तुम चाहो तो मेरे हाथ कटवाने से पहले मुझसे ऐसी या इससे भी सुदंर प्रतिमाएँ बनवा लो। मैं एक मूर्तिकार हूँ।’’
‘‘भाग निकलने का अवसर चाहते हो?’’ धर्माधिकारी ने कुटिल मुस्कान सहित कहा, ‘‘तुम्हारे पापी हाथों से मूर्ति भले ही बन जाए, उस मूर्ति में कभी प्राण–प्रतिष्ठा नहीं हो सकती।’’
‘‘प्राण–प्रतिष्ठा तो उसमें भी उतनी ही थी, जितनी मैंने उसमें की थी।’’
यह सुनकर सब क्रोध से चिल्लाए, ‘‘इस झूठे और पापी को प्राणदंड दिया जाए।’’
मूर्तिकार ने धैर्यपूर्वक कहा, ‘‘मुझे मृत्युदंड स्वीकार है, किन्तु तुम्हें क्यों स्वीकार नहीं है कि मैं पहले जैसे एक सुदंर देवी तुम्हें देकर जाऊँ यदि तुम्हारी इस देवी में प्राण होते तो यह कैसे एक पागल के हाथों खंडित हो जाती?’’
धर्माधिकारी ने क्रोधपूर्वक कहा, ‘‘यह निर्लज्ज और ढ़ोंगी सचमुच मृत्युदंड के योग्य है। इसे अविलंब बलिवेदी पर पहुँचाया जाए।’’
सैनिकों की पकड़ में बलिवेदी की ओर बढ़ता हुआ मूर्तिकार हँसा और बोला, ‘‘तुम अपनी इस देवी सहित पता नहीं कब तक इस श्मशान में शवों की भांति पड़े रहोगे? किंतु मुझे मेरी मृत्यु मेरी वास्तविक देवी, मेरी प्रियतमा के पास ले जा रही है। तुम...मेरे नवजीवन के द्वार पर नियुक्त,सोए हुए...मौत के दासहो...तुम्हारा भला हो!’’
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