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लघुकथाएँ - देश -सुधीर निगम
दूसरे की पीठ
सीटी बजी और कछुए तथा खरगोश की ऐतिहासिक दौड़ प्रारंभ हो गई। दौड़ने की बजाय कछुआ परम्परागत रूप से धीरे–धीरे चलने लगा। इधर खरगोश ने काफी देर तक दौड़ ही आरंभ नहीं की। कुछ देर बाद वह मज़े ले–लेकर कभी दौड़कर कछुए के आगे हो जाता फिर रूककर पीछे चलने लगता। किनारे खडत्रे दर्शकों को मज़ा नहीं आ रहा था अत: वे भागकर अंतिम लक्ष्य पर जाकर जम गए। खरगोश को भी दौड़ में मज़ा नहीं आ रहा था इसलिए उसने सोचा कि कहीं छाया में लेटकर एक नींद मार ले। उसने देखा कि सड़क के दोनों ओर पेड़ों का कहीं नामोनिशान नहीं था, शायद इंसानों द्वारा काट दिए गए थे। अत: वह कछुए के पीछे आया और धीरे उचककर उसकी पीठ पर चढ़कर चारो हाथ–पैर फैलाकर पेट के बल लेट गया। कछुए की धीमी गति उसे पालने जैसी लगी और खरगोश आराम से सो गया।
कछुआ अपनी सुस्त चाल से निरंतर चलता जा रहा था। काफी देर तक जब उसे खरगोश न दिखाई दिया तो उसने सोचा कि उसका मूर्ख प्रतिद्वन्द्वी कहीं झाड़ी में सो रहा होगा। कछुए को अपनी जीत निश्चित लगी।
कुछ देर बाद शोर सुनाई पड़ने लगा। अंतिम लक्ष्य पास आने वाला था और वहां खड़े दर्शक हंगामा कर रहे थे। इस शोर से कछुए की पीठ पर सोए खरगोश की आँख खुल गईं। वह एक नींद लेकर तरोताजा हो चुका था। वह धीरे से कछुए की पीठ से उतरा और दलांगे मारते हुए कछुए से पहले अंतिम लक्ष्य पर पहुँच गया। जीत की खुशी में उसके गले में मालाएँ डाली गई। विजयी खरगोश ट्राफी लेकर जब घर पहुँचा तो उसके दादा ने पूछा, ‘‘अरे छोटू, तूने सफलता कैसे पा ली?’’
विजयी पोते ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया, ‘‘दूसरे की पीठ पर चढ़कर।’’
 
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