वे दोनों बातें करते–करते सीढि़यों से छत पर आ गये। आगे–आगे चाँदनी, पीछे–पीछे चन्दर।
‘‘हाँ तो चाँदनी .......... क्या सोचा तुमने?’’
चाँदनी हँसने लगी – ‘‘चाँदनी को मुट्ठी में बन्द करना चाहते हो?’’
‘‘मज़ाक छोड़ो। मुझे ‘सीरियसली’ तुम्हारा जवाब चाहिए।’’
‘‘देखो चन्दर .......’’ चाँदनी एकदम गम्भीर हो गई– ‘‘तुम आकाश में उड़ती हुई इन पतंगों को देख रहे हो न? अभी तुम इतना भी नहीं कमाते हो कि एक पतंग ही खरीद लो।’’
‘‘मेरी बेरोजगारी का मज़ाक उड़ाना चाह रही हो? और फिर ..... क्या मैं कोशिश नहीं कर रहा? इस बार तो एक बार ‘एप्रोच’ भी ढूँढ ली है मैंने।’’ चन्दर की आँखें चमक उठी थीं।
‘‘फिस्स .....’’ चाँदनी फिर हँस पड़ी–‘‘चन्दर! जि़न्दग़ी मौज उड़ाने के लिए है।’’
‘‘तो.........?’’
‘‘वो ऊपर देखो .....’’ चाँदनी ने बात ही पलट दी– ‘‘पीली और हरी पतंग के पेच हो रहे हैं।’’
दोनों आकाश की ओर देखने लगे–पतंगें आपस में उलझी हुई आगे बढ़ती रहीं और कुछ ही क्षणों में दोनों पतंगें कटकर आकाश में तैरने लगीं। इत्तेफाक से दोनों पतंगें उसी छत पर लगे टी.वी. के एंटीना में अटक गईं। पीली पतंग बुरी तरह से एंटीना में उलझ गई थी और हरी पतंग की डोर का आखिरी सिरा उसमें अटका हुआ था।
‘‘‘अब इन पतंगों को ही देखते रहोगे या कुछ बोलोगे भी?’’
‘‘क्या ऐसा नहीं लगता कि ये पीली पतंग मैं हूँ?’’
‘‘और मैं एंटीना ! हैं....?’’ चाँदनी मुस्कराई– ‘‘अगर तुम पीली पतंग हो तो मैं भी हरी पतंग हूँ।’’
चाँदनी के शब्द अभी पूरे भी नहीं हुए थे कि हरी पतंग की डोर का आखिरी सिरा एंटीना से छूट गया और पतंग आकाश में लहराने लगी।
‘‘देखो, मैं आकाश में तैर रही हूँ....’’ चाँदनी हरी पतंग की ओर देखते हुए बोली–‘‘ क्या मुझे थामोगे नहीं?’’
‘‘क्यों नही?’’ चन्दर के चेहरे पर शोखी उतर आई– ‘‘अभी लो।’’
चन्दर तेज़ी से पतंग को पकड़ने के लिए छत के दूसरे सिरे की ओर दौड़ा। हाथ में आती– आती डोर छूट गई। पतंग नशे में डूबे आदमी की तरह लहराती हुई सामने सेठ जी की बहुमंजिली इमारत पर जा गिरी। चन्दर वहीं खड़ा–खड़ा पतंग की डोर को निहारता रहा। तंद्रा भंग होते ही उसने अपने हाथ झाड़े और सीढि़यों की ओर बढ़ गया।
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