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लघुकथाएँ - देश -योगेन्द्र शर्मा |
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पहचान
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‘‘ओ रिक्शा.....बड़े बाजार चलेगा।’’
‘‘चलूँगा दीवान जी.....। और....सरकार कैसे हैं? पहले से कुछ कमजोर दिखाई दे रहे हैं।कुछ बीमार–ऊमार रहे क्या?
‘‘अबे तू तो ऐसे बात कर रहा है, जैसे पुरानी जान पहचान हो।’’
‘‘अरे आप भूल गए सरकार.....। पिछले साल राम बारात वाले दिन आपने मेरे ऐसा बेंत जमाया....ऐसा बेंत जमाया था कि अब तक निशान पड़ा हुआ है.....ये देखिए...।’’
‘‘मारा होगा.....। सरकारी बेंत है, ये तो ससुरा चलता ही रहता है।’’
‘‘लेकिन सरकार, मुझे मारने में आपकी कलाई में मोंच आ गई थी।’’
‘‘अरे.....तो तू किसना है, क्या?’’ |
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