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लघुकथाएँ - देश -धर्मपाल साहिल
सास
‘‘कलमुँही तू ही रह गई थी मेरे हीरे–जैसे इकलौते बेटे के लिए? क्या करतूत है तेरी? एक के बाद एक पूरी पाँच लड़कियों की लाइन लगा दी है तूने हमारे खानदान का नाम ही मिटा छोड़ना है तूने तो.....’’
‘‘माताजी, लड़के पैदा करना तो कुदरत के हाथ है। इसमें भला मेरा क्या कसूर?’’
‘‘बस, चुप कर जा। कैसी कैंची की तरह जुबान चलाती है! पूरी जादूगरनी है। पता नहीं क्या जादू किया है मेरे बेटे पर। कितनी बार समझाया है और पंडित भी कहते हैं कि इस कलमुँही को पुत्र–योग है ही नहीं, दूसरा विवाह कर ले, पर मानता ही नहीं। साफ टाल जाता है ।जोरू का गुलाम!’’
आए दिन शशि और उसकी सास के बीच महाभारत होता। शीघ्र ही एक बार फिर शशि के पाँव भारी हो गए। लिंग–टेस्ट की रिपोर्ट सुनकर सास की खुशी का ठिकाना नहीं था। बेटा आने की खुशी ने शशि को सास की आँख का तारा बना दिया। अब उसको चारपाई से नीचे पैर नहीं रखने दिया जाता। नौकरानी रखी गई। डॉक्टरी चैकअप, टॉनिक और तरह–तरह के भोज्य पदार्थ। हर कोई शशि की सेवा में हाजिर होता।
डिलीवरी का समय आ पहुँचा। घर में मोतीचूर के लड्डू मँगवाए गए। डिलीवरी का इंतजाम घर पर ही किया गया। शशि को प्रसव–पीड़ा शुरू हो गई। सास पोता पैदा होने की खबर सुनने के लिए बेकरार थी कि नर्स आकर खुशखबरी सुनाए।
तभी नर्स ने आकर उदास स्वर में कहा, ‘‘माताजी, कन्या आई है।’’
‘‘क्या? फिर लड़की! हाय...ओ लोगो! मैं लुट गई....’’ कहती हुई सास वहीं गश खा गई। कमरे में शशि के पुन: चीखने पर नर्स अंदर की ओर दौड़ी। शशि ने दूसरे बच्चे को जन्म दे दिया था। इस बार लड़का हुआ था। नर्स खुशी–खुशी बाहर आई, ‘‘माताजी....माताजी, बधाई हो! दूसरा बच्चा लड़का है।’’ परंतु सास के प्राण–पखेरू उड़ चुके थे। तभी किसी औरत की आवाज आई, ‘‘पोता परिवार पर बहुत भारी है। पैदा होते ही दादी को खा गया!’’
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