माँ को सात वर्ष से पागलपन के दौरे पड़ रहे थे और पिछले वर्ष से उसने चारपाई पकड़ ली थी। वहीं खाना–पीना। वहीं मल–मूत्र। माँ को सम्भालना उसके लिए कठिन हो गया था। ऊपर से कितनी ही बीमारियों ने उन्हें घेर रखा था। डाक्टर ने जवाब दे दिया था। ईश्वर ने जाने कितनी साँसें लिखी हैं, वे तो उन्हें पूरी करनी पड़ेगी। वह आजि़ज आ गया था। कई बार खीझ उठता। माँ की सेवा भी करता और गुस्सा भी करता ।जेब बेकाबू हो जाती।
गत कई महीनों से वह माँ की मुक्ति के लिए मृत्युंजय मंत्र का जाप भी करने लगा था। किसी तरह इस नारकीय जीवन से माँ मुक्त हो जाए, उसे छुटकारा मिल जाए। और ईश्वर ने बरसों बाद उसकी पुकार सुन ली थी। माँ को मुक्ति मिल गई थी। वह भी कर्त्तव्य भार से मुक्त हो गया था। सभी रस्मों को पूरा करने के बाद आज वह घर में नितांत अकेला रह गया था। चारपाई, जिस पर माँ सोती थी, सूनी पड़ी थी। घर में सन्नाटा पसरा था। वह चारपाई के पाए पर सिर रख कर फफक पड़ा। उसे उसमें से माँ की ममता की अजीब–सी महक आ रही थी।
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