चौधरी रामसिंह डेढ़ घंटे से बस का इंतजार कर रहे थे। कड़कती धूप थी, साए के नाम पर बबूल की झीनी छाया–अब तो प्यास भी लग गई थी बेचैनी में अंगोछे से पसीना पोंछे जा रहे थे कि तभी एक स्कूटर उनके पास आकर रुका।
‘‘आइए चौधरी साहब!’’ स्कूटर से उतरकर मास्टर ओमप्रकाश कपड़े से सीट साफ करने लगा। पाँच–सात किलोमीटर चलने के बाद एक बड़े गाँव के बस अड्डे पर चौधरी साहब स्कूटर से उतरने लगे। ओमप्रकाश ने कहा, ‘‘बैठे रहिए चौधरी साहब, घर पर छोड़ देता हूँ।’’’
‘‘रहने दो ओम, मैं चला जाऊँगा।’’
‘‘इतनी धूप में! दो मिनट लगेंगे, छोड़ आता हूँं।’’ ओमप्रकाश उन्हें घर तक छोड़ आया।
बहुत दिनों तक चौधरी साहब अपनी बिरादरी के लोगों में बैठते तो कहते, ‘‘लड़का ओमप्रकाश बहुत अच्छा है। मेरे स्कूटर पर बैठने से पहले सीट को साफ किया, रास्ते में ठंडा पिलाया, घर तक छोड़ कर गया पर एक बात फाँस की तरह चुभती है... अब ये छोटी जात वाले हम पर मेहरबानियाँ करेंगे...क्या जमाना आया है।
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