गाँव की चौपाल पर एक पेड़ था। पेड़ की धनी छाया थी। छाया में खेलते थे बच्चे। गाँव का पंडित लगाता था पाठशाला। मौलवी उतारता था प्रेत। गाड़ता था पेड़ में कील, कील में प्रेत। स्त्रियाँ करती थी पूजा उस पेड़ की। बाँधती थी सूत पेड़ से अपनी जीवन की डोर को मजबूत करने लिए। माँगती थी मन्नते। गाँव की पंचायत करती थी फैसले उस पेड़ के नीचे। बड़े बुजुर्ग तय करते थे रिश्ते बच्चों के। सरकार की गाड़ी दिखाती थी फिल्म, लगाती थी नसबन्दी के शिविर। पेड़ की हरी डालियों पर बैठकर कोयल सुनाती थी गीत, कबूतर बनाते थे घोसलें। प्रेमी युगल लिखते थे अपना नाम पेड़ के तने पर।
तमाम बदलते मौसमों के बावजूद गाँव का वह पेड़ हरा था सभी के भीतर।
एक दिन गाँव में दंगा हो गया। गाँव में क्या पड़ोसी शहर में दंगा हो गया और उसकी खबर गाँव में भी फैल गई। बच्चे दुबके रहे अपने अपेन घरों में। पंडित ने नहीं लगाई पाठशाला। मौलवी नहीं आया प्रेत उतारने। स्त्रियाँ भूल गई पूजा के श्लोक। गाती हुई कोयल का कंठ रुध गया। कबूतर का घौंसला उजड़ गया। कोई मुसाफिर नहीं आया उस तरफ। नहीं बैठी कोई पंचायत उस पेड़ के नीचे।
लोगों ने अपने घरों की खिड़कियों से झाँक कर देखा कि वह पेड़ के धीरे–धीरे सूखने लगा है।
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