मैं भोजन कर रहा था कि एक कुत्ता आ गया। मैंने उसे दुत्कारा, हड़काया लेकिन वह टस–से–मस नहीं हुआ। मैंने मदद के लिए आसपास देखा और छोटे भाई को आवाज दी, –‘‘जरा एक लकड़ी तो लाना!’’
भाई लकड़ी ले आया और कुत्ते को मारने के लिए आगे बढ़ा। कुत्ता भाई की इस हरकत पर भड़क गया। वह इस अंदाज से गुर्राया कि छोटा भाई डर गया। मैं भी डर गया। क्या मालूम झपट पड़े।
मैं तो अपना कुत्तापन भूल ही चुका हूँ।
समझौते की मुद्रा में मैंने रोटी का एक टुकड़ा उसकी ओर घृणा से फेंक दियां कुत्ता थोड़ी देर टुकड़े को घूरता रहा, फिर बोला,–‘‘बस, इतना ही?’’
–‘‘और क्या सभी लोगे? क्या कहाँ कमाकर रख गए हो?’’ मैंने गुस्से से कहा।
–‘‘तो तुमने कौन–सा खुद कमाया है?’’ वह भी गुर्राया,–‘‘हराम की कमाई है। हराम की कमाई का बँटवारा ऐसा ही होता है।’’
–‘‘हराम की कमाई का कोई बँटवारा नहीं होता है। जिसके हिस्से में आई, कमाई उसी की। आजकल नम्बर दो की कमाई में भी मेहनत करनी पड़ती है।’’ मैंने उसे समझाना चाहा।
–‘‘मुझे कुछ नहीं सुनना। आधा दो।’’ वह घूरते हुए बोला।
मैं साश्चर्य तैश में बोला,–‘‘आधा नहीं दूँगा। यह टुकड़ा भी लेना हो तो लो, नहीं तो भागो यहाँ से।’’
–‘‘तो फिर नहीं दोगे?’’ वह निर्णायक स्वर में बोला।
–‘‘नहीं, बिल्कुल नहीं दूँगा। जो करना हो कर लो।’’ मुझे फिर गुस्सा आ गया।
–‘‘मैं काट खाऊँगा।’’ वे चेतावनी भरे स्वर में बोला।
उस समय उसके चेहरे पर कुटिल मुस्कान खेल रही थी।
मैं तमतमा कर बोला,–‘‘अबे, भाग यहाँ से। देना तो लकड़ी ज़रा......!’’ मैंने छोटे भाई से कहा।
एकाएक वह उठ खड़ा हुआ। उसकी भयानक मुख मुद्रा देखकर मैं काँप उठा। वह आग्नेय नेत्रों से मुझे घूरता हुआ बोला,–‘‘बाहर, निकलो, देखता हूँ।’’
और वह उस रोटी के टुकड़े को बगैर देखे बाहर निकल गया।
मेरी दृष्टि रोटी के टुकड़े पर केन्द्रित हो गई। मैं उस समय यह देख नहीं पाया कि मेरी पूँछ पिछली दोनों टाँगों के बीच दबी हुई थी।
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