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लघुकथाएँ - देश - के.पी. सक्सेना
नासमझ
रविवार का दिन था। परबतिया हनुमान मंदिर की ओर भागी चली जा रही थी। गोद का लड़का बार–बार उसकी छाती पर हाथ मार रहा था ;लेकिन उसे समझ कहाँ थी जो कहीं बैठ कर दूध पिलाए–वैसे ही का देर हो चुकी थी। अब तक तो सारी गली भर गई होगी। अब उसे जगह मिलेगी भी तो पीछे वाली गली में ;जहाँ दर्शनार्थी कम और औरतों को घूरनवाले मनचले ही मँडराया करते हैं।
बस एक ही आसरा था–रहमान का। अगर उसकी उतर चुकी होगी तब तो वो जरूर पहले आके अपनी जगह बना लिया होगा। वो भी धीरे से उसके पास लौंडे को लिटा कर बैठ जाएगी। सभी भिखारी जानते हैं कि आजकल वो उसके साथ ही रह रही है। कोई कुछ नहीं बोलेगा। वैसे भी रहमान से सभी कतराते हैं । वह बात–बात में चाकू जो निकाल लेता है।
मंदिरवाली सड़क में मुड़ते ही उसे रहमान की हरी तहमद दूर से ही दिख गई। उसने राहत की साँस ली–हालाँकि डर रही थी कि देखते ही रहमान उसे सबके सामने गालियों से नवाज़ना न शुरू कर दे। खैर! उसे भरोसा था कि आज वह उसे देरी का सबब बताएगी तो उसका गुस्सा एक मिनट में काफ़ूर जाएगा।
और शुरुआत ठीक वैसे ही हुई। वह देखते ही ऐसे गुर्राया;जैसे गली का कुत्ता किसी नए कुत्ते को देखकर गुर्राता है–‘‘धंधे टैम कहाँ गुलछर्रे उड़ा रही थी? आधे भगत निकल गए अब तक नहीं आई।’’
परबतिया को पता था कि जवाब सुनते ही वह पानी–पानी हो जाएगा, अत: दुगने जोर से बोली–‘‘गुलछर्रे उड़ाने नहीं, तेरे लौंडे को पोलियो दवा दिलाने गई थी ताकि कल को वो भी तेरी तरह भचक–भचक न चले।’’
बात पूरी हुई ही थी कि एक झन्नाटेदार झापड़ उसके गाल पर पड़ा और आवाज आई–‘‘भचकके चलता हूँ ,तभी चार पैसे मिलते हैं। दोनों पैरों से चलेगा तो बुढ़ापे में तू किसकी कमाई खाएगी।’’
परबतिया को अपनी नासमझी पर तरस आने लगा।
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