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लघुकथाएँ - देश - सतिपाल खुल्लर
कलाकृति
रेलवे स्टेशन के विश्रामघर के बाहर बने चबूतरे पर उसे न देख, वह घबरा-सा गया। अभी कल तो वह यहीं था!
पिछले कई महीनों से वह इस दरवेश भिखारी को देख रहा था। वह पहली गाड़ी से अपनी ड्यूटी पर जाता है। वह एक चित्रकार है और अपने रंग तथा ब्रुश साथ ही रखता है।
वह भिखारी किसी से कुछ माँगता नहीं। बस जो मिल जाए, वही खा लेता है। आलसी-सा, न नहाने की इच्छा, न दातुन-कुल्ला करने का मन। सदा मिट्टी से सना सा रहता। आने-जाने वालों की ओर हसरत भरी नज़रों से देखता। नैन-नक्श सुंदर, आखों में अजीब-सी चमक। पता नहीं क्यों वह ज़िंदगी से हार मान बैठा। चित्रकार उसे रोज देखता। उसके मन में उसका चित्र बनाने की इच्छा थी। कल उसे समय मिल गया। गाड़ी आधा घंटा लेट थी। वह उसके नजदीक एक बैंच पर बैठ गया और उसकी तरफ देखकर ब्रुश चलाने लगा।
चित्रकार को बार-बार अपनी ओर झाँकता देख, भिखारी झुँझला गया, “क्या करते हो? मेरे को ऐसे क्यों घूरते हो?”
“कुछ नहीं, कुछ नहीं…बस…।”
पंद्रह मिनट में ही चित्र तैयार कर चित्रकार ने उसे दिखाया तो वह बोला, “यह कौन है?
“यह तुम ही हो। तुम्हारा ही चित्र है यह…तुम्हारी फोटो।”
“मैं इतना सुंदर!” वह चाव से उठ बैठा।
“हाँ, तुम तो इससे भी सुंदर हो…बहुत सुंदर।”
और आज भिखारी को वहाँ न देख, चित्रकार ने उस के बारे में स्टेशन मास्टर से पूछा।
“कल आपके जाने के बाद वह नल के नीचे नहाकर मेरे पास आया था। मैंने अपना पुराना सूट उसे पहनने को दे दिया। सूट पहन कर वह बहुत खुश हुआ।”
“पर वह गया कहाँ?”
“वह देखो, स्टेशन पर नया फर्श लग रहा है। वह वहीं मज़दूरी कर रहा है।”
चित्रकार ने उधर अपनी जीती-जागती कलाकृति की तरफ देखा और मुस्करा दिया।
 
 
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