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लघुकथाएँ - देश - प्रदीप चौबे
समझौता
आखिर अपने–अपने अकेलेपन से बराकर, आदमी और साँप ने एक समझौता किया। दोनों ने एक मौखिक संधि पर हस्ताक्षर किए, जिसके अंतर्गत तय हुआ कि अपने–अपने चरित्र की हत्या कर देंगे, एक साथ जियेंगे और एक साथ जी सकें इसलिए एक ही छत के नीचे रहेंगे। दोनों शांतिपूर्ण सह–अस्तित्व में पूरी–पूरी आस्था रखते हुए अपनी हिंसक वृत्तियों को छोड़ देंगे, विष किसी में वास नहीं करेगा। एक–दूसरे पर पूरा–पूरा विश्वास होगा। सपने में भी कोई किसी की नीयत पर शक नहीं करेगा।
हवा को साक्षी मानकर समझौता हुआ। रस्म संपन्न हो जाने पर खुशी–खुशी हाथ मिलाने की मुद्रा में आदमी ने अपना दाया हाथ और साँप ने अपना इकलौता फन आगे बढाया। इसके बाद, चूंकि साँप की बांबी में आदमी का प्रवेश संभव था ही नहीं इसलिए तय हुआ कि दोनों आदमी के घर रहेंगे।
घर पहुंचकर आदमी ने अपने दो कमरों वाले घर का छोटा कमरा साँप को अलॉट करके दिया। दरअसल कमरा तो एक ही था लेकिन लकड़ी के एक पतले पार्टीशन ने, बड़े कमरे में दो कमरों में बाँट दिया था। प्रकाश व्यवस्था के नाम पर बिजली का एक बल्ब ‘जागते रो’ की मुद्रा में छत से लटक रहा था, जो रोशनी को, दोनों कमरों में, साम्यवादी ढंग से बराबर–बराबर बांट देता था।
दोस्ती का पहला दिन, दोनों ने बड़ी मैत्री और सद्भावना में गुजारा। शाम को आदमी ने खाना बनाकर खुद खाया और साँप को दूध दिया। फिर संध्याकालीन प्रार्थना शुरु हुई। आदमी ने साँप को रामायण की कुछ चौपाइयाँ सुनायी। बदले में साँप ने उसे सर्प–लोक के गीत सुनाये। इसके बाद दोनों संयुक्त सं और अनेक अंतर्राष्ट्रीय प्रसंगों पर बात करते हुए अपने–अपने कमरों में चले गए।
समझौते का पहला दिन खुशी–खुशी खत्म हो चुका था। अब रात शुरू हो रही थी। रात ने सरकते–सरकते दो बजाये। समय ने देखा, बार–बार करवटें बदलता आदमी धीरे–से बिस्तर से उठा। कमरे में हल्की नीली रोशनी पहरा दे रही थी। आदमी दबे पाँव लकड़ी की दीवार के पास पहुँचा। दीवार में एक छोटा सूराख हो रहा था। आदमी ने सूराख से दूसरे कमरे का जायज़ा लेना चाहा। उसने ज्योंही सूराख.....अंदर.....अंधेरे को चीरती हुई एक लंबी चीख उसके गले से निकली और घिघियाहट में बदल गई।
दीवार की दूसरी तरफ से साँप आदमी के कमरे में झाँक रहा था।
 
 
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