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लघुकथाएँ - देश - राजेश
नियति
‘‘पिछवाड़े वाले गोदाम में रखा मक्का सड़ता जा रहा है हुजूर, बाहर से ही बास आती है’’ –मुंशीजी ने मालिक बाबू को भंडार की ताजा स्थिति बताई।
‘‘मांड़ और भूसे के साथ मवेशियों को खिला दीजिए’’– मालिक बाबू ने मसनद पर लेटे सूद जोड़नेवाली वही पर से नजर हटाए बिना ही निदान बता दिया।
‘‘हुजूर, मवेशी तो उसे सूंघते भी नहीं, लेकिन मजदूरवन सब थोड़ा खन–खन करके भी ले लेता है। अबकी अगल–बगल के इलाके में भी पानी नहीं पड़ा चारों तरफ कंगाली है। मजदूर लोग को कहीं काम नहीं मिलता। सोचते हैं, इस गर्मी में दालान भराई का काम कराके सब मक्का खत्म कर दिया जाए’’–इसके पहले कि मालिक बाबू स्वीकृति दें, मुंशी जी ने डरते–डरते धीमे स्वर में कहा–‘‘हजूर, मगर एक बात.....’’
‘‘वो क्या’’, मालिक बाबू चिहुंक पड़े।
‘‘छोटे बबुआ अपना बचपना छोड़ नहीं रहे, परसों–तरसों खलिहान में बोल रहे थे–तुम लोगों को शरम नहीं आती है। इस सेर भर सड़े मक्के पर दिन भर अपनी देह जलाते हुए? एकजुट होकर सही मजदूरी की मांग करो, एकदम हिजड़े हो सब, नही तो जो मक्का बैल नहीं सूंघते, उसे पाने के लिए एक आदमी के इशारे पर नाचे फिरते हो? कौन उबारेगा, तुम्हारी नियति ही यही है।’’
मुंशी जी ने दबे पाँव बाहर निकलकर मालिक बाबू के साने वाले कमरे के बाहर कान लगा लिया, ‘‘बबुआ से कह दो गर्मी की छुट्टी होस्टल में ही बिताएँ’’–मालिक बाबू मलकिनी जी को समझा रहे थे।
 
 
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