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लघुकथाएँ - देश - सुरेश यादव
दुआ और दहशत
अजीत सुबह जब र से आफिस के लिए निकलता तो माँ उसे रेाटी का टिफिन देना कभी नहीं भूलती। मोटरसाइकिल की पिछली सीट पर वह उसे कसकर बाँध लेता, फिर पलट कर माँ के पैर छूता। माँ हमेशा कीतरह उसके सिर पर हाथ फेरते हुए आशीर्वाद देती–‘सब का भला हो बेटा, साथ में तेरा भी भला हो।’
अजीत की पुरानी मोटरसाइकिल गड्ढेदार सड़कों पर दौड़ने लगती। भीड़ में रास्ता बनाकर जब मोटरसाइकिल साफ निकल जाती तो उसे सकून मिलता कि आज तक कभी किसी को इस गाड़ी से खरोंच तक नहीं लगी। माँ की दुआओं के गुलाबी सागर में आनन्द के हिचकोले लेता वह कभी–कभी माँ के हाथ के देशी घी के पराँठों की खुशबू में तैरने लगता।
रोज की तरह आज उसने जब कार्यालय के गेट पर मोटरसाइकिल खड़ी और देखा तो टिफिन गायब। ‘रास्ते में कहीं गिर गया लगता है, बहुत गड्ढे हैं सड़क पर’ वह बुदबुदाया और मोटरसाइकिल उठाकर वापस उसी रास्ते चल पड़ा।
एक जगह उसने देखा, भीड़ लगी है। एक पुलिस वाला भी डंडा लेकर आ पहुँचा था। भीड़ को दूर रहने की हिदायत दी जा रही थी। ‘बम है टिफिन में....कोई अभी–अभी रखकर गया है’, उसके कानों में आवाज पड़ी। बम फटने की आशंका से भयभीत लोग तरह–तरह के कयास लगाये जा रहे थे। भीड़ में आतंकवाद की चर्चा जितने जोरों पर है, देशभक्ति और एकता के स्वर भी उबर रहे थे।
भय–आक्रांत और बदहाल–सी भीड़ को चीरते हुए अजीत ने देख लिया–उसी का रोटी डिब्बा है। भागकर पूरी निर्भयता से जब उसने उठाया तो हैरान से लोगों की जान में जान आयी। उसके टिफिन को छाती से लगाया जैसे खोये हुए बच्चे को माँ लगाती है। पलकों में अटके आँसुओं के साथ इतना–भर कह पाया–‘वक्त की यह कैसी सजा है, माँ की ममता भी दहशत में बदल गई हैं।’ उसकी आँखों में आँसू टपक पड़े।
 
 
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