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लघुकथाएँ - देश - नरेन्द्र कौर छाबड़ा
कातरता
जर्जर बदरंग साड़ी में लिपटी वह औरत सरकारी अस्पताल के जनरल वार्ड से बाहर निकलते हर डॉक्टर के सामने गिड़गिड़ाने लगी–‘‘डॉक्टर साहब, हमारी बिटिया को बचा लो, उसने तीन दिनों से खाना नहीं खाया, पानी नहीं पिया। वह सारा दिन सोई रहती है उठती क्यों नहीं? वह कब ठीक होगी?’’ डॉक्टर उस पर उचटती सी नजर डाल आगे बढ़ जाते।
तीन दिन पहले उसकी जवान बेटी के दिमाग की नस फट गई थी। घरों में चौका -बासन करती औरत को पड़ोस की लड़की बुला ले गई थी। तब तक दूसरी बेटी जो बड़ी से साल भर छोटी थी वह भी झाड़ू कटका करके आ गई। माँ- बेटी ने मिलकर बड़ी को रिक्शे में डाला और अस्पताल पहुँची। तभी से बड़ी बेटी कोमा की अवस्था में थी।
अगले दिन बड़ी बेटी की मौत हो गई। औरत दोहत्थड़ मारकर रो रही थी और छोटी बेटी सिसकियाँ भर रही थी। अस्पताल की औपचारिकताओं के पश्चात जब डॉक्टर ने औरत को बेटी का शव सौंपने का आदेश दिया तो वह रोते हुए गिड़गिड़ाने लगी......‘‘मैं इसे ले जाकर क्या करूँ। इसे फूँकने के लिए मेरे पास पैसे कहाँ हैं?’’
तय यह हुआ कि औरत को कुछ पैसे दे दिए जाएँ और बेटी का शव मेडिकल कॉलेज भेज दिया जाए। विद्यार्थियों के सीखने के काम आ जाएगा। औरत को पैसे मिल गए तो छोटी बेटी के साथ वह आगे बढ़ी। अचानक बेटी तेजी से वापस डॉक्टर के पास पहुँची–‘‘डॉक्टर साब, दीदी के शरीर पर विद्यार्थी चीरफाड़ करेंगे।’’
‘‘हाँ....तो’’
‘‘तो दीदी के कपड़े भी उतार दिए जाएँगे न! वे मुझे दे दीजिए न....अभी अच्छे हैं.....फिर दीदी का और मेरा नाप भी तो एक ही है......’’
 
 
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