पुत्रवधू अपने मायके जाने का कोई भी अवसर चूकती नहीं ।अपने पति के बाहर जाने पर स्वयं भी तैयार हो जाती और पति को वाध्य कर देती कि वह उसे उसके मायके छोड़ते हुए बाहर जाये। ऐसा मुझे लगता ।
मुझे इस बात का भी आश्चर्य होता कि ऐसा करने पर पुत्रवधू के माता–पिता भी उसको कोई सीख नहीं देते कि बेटी, ससुराल ही अब तुम्हारा असली घर है, कि तुम्हारी वृद्धा सास भी अस्वस्थ रहती है और घर में अकेली भी, उनकी सेवा करना, उनके खान–पान और दवा–गोली का ध्यान रखना तुम्हारा फर्ज है।
ऐसे में जब मेरे मन में क्षोभ पैदा होने लगता तो मैं स्वयं ही किचिन में पड़े जूठे वर्तनों को धोकर,खाना बनाकर और पत्नी को खाना खिलाने के बाद दवा आदि देकर दफ्तर चला जाता, पर कभी–कभी मन मे बहुत क्षोभ होने लगता– क्या इसी दिन के लिए ईश्वर से मिन्नतें की जाती हैं, सन्तान प्राप्ति हेतु, ऐसी गैर जिम्मेदार पुत्रवधू क्या मेरे ही भाग्य में लिखी थी आदि...........
एक दिन शाम को पता लगा कि कल बहू–बेटे के दफ्तर की छुट्टी है। मैंने मन नही मन सोचा कि अब कल दोनों ही सुबह 9 बजे से पहले बिस्तर नहीं छोड़ेंगे लेकिन दूसरे दिन सुबह के पाँच बजे ही बहू–बेटे को नहा–धोकर तैयार होते देखा तो मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने पुत्र से पूछा–‘‘आज कहीं जाना है क्या?’’
‘‘हाँ दिल्ली जाना है’’
‘‘और इसको, बहू को भी जाना है?’’
‘‘हाँ’’–पुत्र ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया उत्तर दिया
‘फिर इस बच्चे को साथ ले जा रहे हो या यहीं छोड़कर जाओगे?’’–नन्हे से नाती की ओर देखते हुए मैंने पूछा
‘इसे इसकी नानी के पास छोड़ते हुए जायेंगे’
सुनकर मन तो बहुत कसमसाया पर मैं अपने क्रोध को अन्दर ही अन्दर पी गया, जाते समय सुबह ही सुबह क्यों क्लेश की जाए !
शाम को जब वे लौटकर आये तो रात हो चुकी थी दोनों के हाथों में सामान से भरे दो थैले लटक रहे थे ,जैसे शॉपिंग करके आ रहे हों ।
आते ही बहू ने थैले से एक स्लीपिंग सूट निकाला और नन्हे बच्चे को कालीन पर लिटाकर उसे पहनाने लगी, मोजा, पाजामा और शर्ट तीनों को मिलाकर बनाये गये सिंगल पीस में बच्चे को घुसाकर बहू ने उसकी चैन खींच दी। और बच्चे को उठाकर खड़ा कर दिया ।सूट इतना टाइट था कि बच्चा खड़ा हो–होकर गिर रहा था और ठीक से चार कदम भी नही चल पा रहा था।
उसे देखकर मेरा अन्दर ही अन्दर सुबह से रुका हुआ क्रोध भड़क उठा और मैंने झुँझलाते हुए कहा –‘‘बहू, ये सूट बहुत छोटा है’’
‘नहीं पापाजी ये नाइट सूट है, ये तो ऐसे ही होते है’–बहू की बात सुनकर मेरा क्रोध बाहर प्रकट हो गया और मैंने गुस्सा से उसे बच्चे के शरीर से उतार कर फेंक दिया–‘‘हाँ, मैं तो कुछ जानता ही नहीं हूँ कि नाइट सूट कैसे होते हैं इतनी उम्र वैसे ही गुजार दी मैंने तो बस तुम लोग ही सब कुछ पेट से सीख आये हो
सुानकर बहू सहम सी गई और फिर कुछ नहीं बोली, दूसरे दिन मुझे शान्त अवस्था में देख कर बहू ने मुझे, अपनी सास को और अपने देवर को अपने पास बुलाया और कल शॉपिंग करके लाये थैलों में से सभी के कपड़े निकाल–निकाल कर दिखाने लगी–‘‘पापाजी देखिए ये कुर्ता–पाजामा आपके लिए कैसा है, भैया देखो ये तुम्हारे लिए जींस कैसी है, मम्मी जी ये आपके लिए साड़ी...........
हम तीनों के कपड़े दिखाते–दिखाते उसके हाथ में पकड़े कल वाले दोनों थैले खाली हो गये तो मैने आश्चर्य से पूछा–‘‘अरे! तुम अपने पति व अपने लिए कुछ भी नहीं लाई बेटी?’’
‘‘नहीं पापाजी ,अभी हम लोगों के पास तो ढेर सारे कपड़े आदि हैं, आप लोगों के लिए ये सब लाने के लिए काफी समय से सोच रही थी; लेकिन समय ही नहीं मिल पा रहा था अब कल थोड़ा सा समय मिला तो चले गये थे हम लोग
सुनकर अवाक् रह गया मैं, हमारी बहूँ हम सबका इतना ध्यान रखती है और हम लोग अब तक उसे समझ ही नहीं पाये थे अब मुझे अपने कल किए गये क्रोध पर पछतावा होने लगा था। |