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लघुकथाएँ - देश - श्याम सुन्दर अग्रवाल
बेड़ियाँ
चिता को अग्नि दी गई तो वह धू-धू कर जलने लगी।
काम के बेहिसाब बोझ और ऊपर से पति के गर्म व रूखे स्वभाव के कारण कृष्णा सदा तनाव में रहती थी। अठारह का हो चला बेटा भी उसकी एक न सुनता। उसे घर में बिन तनख़ाह की नौकरानी ही समझा जाता। अच्छी आर्थिक स्थिति वाला परिवार था ; फिर भी वह कभी कहीं सैर-सपाटे को गई हो, याद नहीं आता। शादी के बाद तो वह कभी सिनेमा देखने भी नहीं गई थी। उसे कभी बहुत सुंदर वस्त्रों में मैंने नहीं देखा। हर समय काम में ही लगी रहती। छोटी-सी बात पर भी पति के क्रोधित होने और हाथ उठा लेने की चिंता सदा सताती रहती।
अंततः दिमाग की नस फट जाने से वह दुनिया को अलविदा कह गई।
मैं उसे लंबे अरसे से जानता था और बहुत प्यार करता था; परंतु समाज ने हमें एक नहीं होने दिया। जब कभी भी हम मिलते, वह मेरे सीने से लगकर अपनी पीड़ा हलकी कर लेती।
गरमी का मौसम और आग का सेंक। चिता के पास खड़े लोग धीरे-धीरे दूर जा खड़े हुए। उसका पति व बेटा भी।
मैं अभी भी चिता के समीप खड़ा था। सेंक बहुत था, फिर भी पैर पीछे नहीं हट रहे थे। लगा जैसे जल रही कृष्णा उठ कर बैठ गई हो। उसने दूर खड़े अपने पति की ओर देखकर घृणा से मुँह फेर लिया। अपने कातिल को कौन प्यार करता है, जो वह करती।
“लोग औरत को तड़पा-तड़पा कर मार देते हैं और कोई उन्हें कातिल भी नहीं कहता।” वह कह रही थी।
“मैं भी तो तुम्हें नहीं बचा सका। मैं भी…।” मेरा अंतर्मन रो रहा था।
“तुम दुखी न होओ। तुम्हारे प्यार के कारण ही तो इतना समय जी सकी, नहीं तो कबकी मर गई होती,” उसने मुझे सांत्वना दी और फिर थोड़ा मुस्करा कर बोली, “आओ, आज सबके सामने मुझे अपने सीने से लगा लो…।”
आग के सेंक के बावजूद मेरे पाँव आगे बढ़े तो बेटे ने मुझे पीछे खींचते हुए कहा, “क्या कर रहे हो पापा, आग की लपटें झुलसा देंगीं।”
पीछे हट जाने पर भी कृष्णा को जला रही आग का सेंक मुझे झुलसा रहा था।
 
 
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