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लघुकथाएँ - देश - बलराम अग्रवाल
पानीपत की तीसरी लड़ाई
मास्टरजी ने कक्षा की देहरी पर कदम रखा।
सारे बच्चे चाबी लगे खिलौनों की तरह अपनी जगह पर खड़े हो गए।
“बैठ जाइए।” मास्टरजी ने कहा।
सब के सब जहाँ के तहाँ बैठ गए।
“कल वाला पाठ याद करके लाए?” अपनी कुर्सी पर बैठते हुए मास्टरजी ने सवाल किया।
“जी, मास्टरजी।” बच्चों ने आधे-अधूरे उत्साह से जवाब दिया।
“ठीक है…” पढ़ाई का अपना पीरियड प्रारम्भ करते हुए मास्टरजी कक्षा में सबसे आगे की पंक्ति के दाएँ किनारे पर बैठे पहले बच्चे पर दहाड़े—“खड़ा होजा।”
बच्चा अचानक यह आदेश सुनकर वह भौंचक रह गया था। वह तुरन्त अपने स्थान पर खड़ा हो गया। काँपती-सी देह से वह मास्टरजी की अगली दहाड़ का इंतजार करने लगा। उसका गला सूखने-सा लगा।
“पानीपत की तीसरी लड़ाई किस तारीख को हुई थी, बता?” मास्टरजी ने उससे पूछा।
उसने हालाँकि पिछली रात ही काफी तेज बोल-बोलकर इस पूरे पाठ को घर पर दोहराया था, लेकिन इस समय एक भी शब्द उसे याद नहीं आ रहा था। हाथ में थाम रखी मोमबत्ती को जलाने के लिए कोई जैसे अँधेरे कमरे में माचिस की डिब्बी को टटोलता है, वैसे ही गत रात पढ़े गए शब्दों को वह अपने जेहन में टटोलने लगा।
“हाँ भई, तू बता।” उसे चुप देखकर उसके निकट बैठे दूसरे छात्र को खड़ा हो जाने का इशारा करते हुए मास्टरजी उस पर गुर्राए। खड़ा तो वह भी हो गया लेकिन उत्तर नहीं दे पाया। मास्टरजी ने तीसरे को, चौथे को, पाँचवें को…खड़ा किया, लेकिन बेकार। कक्षा के सारे छात्र जब गूँगी फौज की तरह खड़े हो गए ,तब बायें कोने में सिमटे-से बैठे अन्तिम छात्र से मास्टरजी व्यंग्यपूर्वक बोले,“आप भी शामिल हो जाइए बारात में…”
उनकी बात सुनकर वह खड़ा हो गया और तुरन्त बोला,“जी, चौदह जनवरी सन सतरह सौ चौंसठ को।”
“क्या!” इस अप्रत्याशित आवाज को सुनकर मास्टरजी कुर्सी पर से उछल-से पड़े।
“आगे आजा।” उन्होंने उसे आदेश दिया।
वह बेचारा काँप गया। हालाँकि मिट्टी के तेल की डिबिया के उजाले में उसने गत रात ही यह तारीख किताब बन्द करके याद की थी, लेकिन मास्टरजी की कर्कशता ने जवाब की सटीकता के प्रति उसके मन में सन्देह उत्पन्न कर दिया। लटका-लटका-सा वह आगे आकर खड़ा हो गया।
“हर एक के गाल पर एक-एक थप्पड़ लगा। चल।” उन्होंने उसे आदेश दिया।
अपने साथियों को अपने ही हाथों से दण्ड! बैक-बेंचर बेचारा संकोच में दब गया। उसे निश्चल खड़ा देख मास्टरजी ने जब दोबारा घुड़का तो उसे आगे बढ़ना पड़ा। बड़ी मासूमियत के साथ उसने पहले साथी के गाल पर हल्की-सी चपत लगाई।
“आवाज नहीं आई, जोर से मार।” मास्टरजी चिल्लाए।
उनकी चिल्लाहट को अनसुना करते हुए उसने दूसरे साथी को भी हल्की-सी चपत लगाई और आगे बढ़ गया। तीसरे तक पहुँचा ही था कि कुर्सी पर बैठे उस अहमद शाह अब्दाली ने उसे पुकारा, “इधर आ।”
वह चुपचाप उसके समीप जा पहुँचा।
सड़ा…ऽ…क्।—अब्दाली का भारी-भरकम हाथ कब हवा में लहराया और कब उसके कोमल गाल पर आ पड़ा—उसे पता ही न चल पाया। उसकी आँखों के आगे अँधेरा छा गया। वह खड़ा न रह सका, जमीन पर गिर गया।
“दोस्ती निभा रहा है मादर्चो…” मास्टरजी अब्दाली-अन्दाज में ही उस पर चिल्लाए। फिर, याद करके आने वाले उस अकेले की ओर इशारा करके बाकी कक्षा से बोले,“बैठ जाओ रे सब के सब…कल याद करके नहीं आए तो यही हाल करूँगा एक-एक का…समझे!”
 
 
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