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लघुकथाएँ - देश - रमेश बतरा |
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नागरिक
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उसे होश आया तो वहां कोई नहीं था, गली सुनसान पड़ी थी मानो वहाँ कभी कुछ हुआ ही न हो, जबकि थोड़ी देर पहले वह निरंजन के साथ वहाँ से गुजर रहा था तो अचानक कुछ लोगों ने आकर उन्हें घेरते ही चाकू खोल लिये थे। वे निरंजन से कोई पुराना हिसाब साफ करना चाहते थे। वह उन्हें पहचानता था। उसने उन्हें रोकने की कोशिश भी की ;किन्तु उन्होंने एक भी नहीं सुनी। उन्होंने उसे एक तरफ धकेल दिया। फिर भी चाकू का एक वार उसके बाजू पर भी आ ही लगा...
उसने इधर–उधर देखा। निरंजन भी कहीं नहीं था। वह हड़बड़ाकर उठा और बेसाख्ता भागने लगा।
इस गली से निकलकर वह अगली गली में पहुँचा तो उसे लगा कि कोई उसके पीछे आ रहा है। वह और भी तेज हो गया परन्तु पीछे–पीछे भागे आ रहे अजनबी ने उसे पकड़ ही लिया।
‘‘कहाँ जा रहे हो ?’’
‘‘थाने।’’
‘‘कोई जरूरत नहीं। तुम घर जाकर आराम करो।’’
‘‘मेरा थाने पहुँचना बहुत जरूरी है।’’
‘‘मैं कहता हूँ तुम घर जाओ।’’
‘‘नहीं, मैं तो थाने ही जाऊँगा। अभी थोड़ी देर पहले वहाँ उस गली में उन्होंने मेरे दोस्त की हत्या की है !’’
‘‘तुम उनकी चिन्ता मत करो। उनसे मैं खुद निपट लूँगा।’’
‘‘तुम कौन हो ?’’
‘‘इतनी जल्दी भूल गए ?’’
उसने थोड़ा संयत होकर अजनबी को गौर से देखा। उसे पहचानकर वह हकला गया –‘‘अरे ! निरंजन, तुम...तुम्हारी तो हत्या हो गई थी....’’
‘‘मुझे कोई नहीं मार सकता ।’’
‘‘तुम भी थाने चलो... वर्दियाँ उन्हें पकड़ लेंगी।’’
‘‘उन्हें कोई नहीं पकड़ सकता।’’
‘‘मैं उनका घर जानता हूँ।’’
‘‘उनके बहुत से घर हैं।’’
‘‘मैं तुम्हारी गवाही दूँगा। वर्दियाँ तुम्हारी मदद करेंगी।’’
‘‘जो कुछ करना है, मैं खुद कर लूँगा। तुम चुपचाप घर जाओ।’’
‘‘मैं रपट किए बिना घर नहीं जाऊँगा।’’
‘‘जाते हो कि नहीं ?’’ निरंजन ने उसके पेट में घूँसा दे मारा। उसकी आँतें बाहर आने को हो गईं। वह रो पड़ा और आवेश में निरंजन को धकेलकर – ‘‘जाऊँगा ... जाऊँगा...और तुम्हें भी देख लूँगा ....!’’ चिल्लाता थाने की ओर भागता चला गया।
थाने में पहुँचकर उसने बयान दिया – ‘‘मैं आज उस गली में छुरेबाजी करने वाले लोगों को पकड़वा सकता हूँ!’’
‘‘छुरेबाजी ?’’ वहां तैनात वर्दियाँ हँस पड़ीं – ‘‘आज तो पूरे शहर में कहीं छुरेबाजी नहीं हुई।’’
‘‘हुई है... उन लोगों ने निरंजन पर हमला किया था...निरंजन जिन्दा रह गया तो क्या हुआ... चाकू तो उसे लगे ही हैं और अब वह भी उनकी जान का दुश्मन हुआ फिरता है..।’’
‘‘तुम्हें कैसे मालूम ?’’
‘‘मैंने अपनी आँखों से देखा है?’’
‘‘अपनी आँखों से देखा है।’’
‘‘जी हाँ, मेरे बाजू पर भी लगा है एक चाकू...!’’
‘‘जी।’’
‘‘ऐ वर्दी!’’ उनमें से एक चमकदार वर्दी चिल्लाई – ‘‘पकड़ लो भाई को .... बच्चा कहीं खून–खराबा करके आया लगता है ।’’
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