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लघुकथाएँ - देश - रवीन्द्र वर्मा
पर्वतारोही
मेरा दूसरा कदम चोटी पर पहुँचा और मैं अपने पैरों पर खड़ा हुआ। मैंने चारों ओर हाँफते हुए देखा। इतनी सुदर धरती मैंने कभी नहीं देखी थी। नीचे चारों ओर दरिया फैला था। और नीले –से कुछ में लिपटा हुआ धरती का चेहरा था, प्रेयसी के पहले चेहरे की तरह दिलकश और आतंकपूर्ण । घाटी में फूल,पत्तियाँ ,नदी और बस्ती थी, कहीं धूप थी,कहीं छाँव थी, धूप सोने की तरह चमकती लगती थी, जिसका पीछा सरकती हुई छायाएँ कर रही थीं।
अचानक मैंने अपने पैंरो की ओर देखा जो चोटी पर चढ़ आए थे। पैरों के चारों ओर दूब थी ओर दूब में नन्हें–नन्हें नीले और पीले फूल खिल रहे थे। मैंने दो नीले और दो पीले फलों को झुककर तोड़ा और हथेली पर रखकर उन्हें देखने लगा। नीचे घाटी में ऐसे फूल नहीं थे, जहाँ बस्ती थी और मेरा घर था।
बस्ती में पीढ़ी–दर–पीढ़ी यह किंदवन्ती चलती आई थीं कि यह चोटी,जिस पर मैं खड़ा था, सबसे ऊँची चोटी थी। जब मेरी मसें भीगीं,मैंने संकल्प किया कि मैं इस चोटी पर चढूँगा जिस पर अभी तक कोई नहीं चढ़ सका था। अभी तक जिन पर्वतारोहियों ने इस चोटी पर चढ़ने का प्रयास किया था मैंने उन सबके बारे में जानकारी हासिल की, मसलन उनका स्वास्थ्य कैसा था, उन्होंने ब्याह किया कि नहीं, उन्होंने कौन–से–यंत्र इस्तेमाल किए, उन्होंने कितनी मशक्कत की, उनका आहार क्या था आदि आदि। यह दस वर्ष पहले की बात है जब मैंने इस चोटी को जीतने के लिए अभियान शुरू किया था,नहीं, दस नहीं, नौ वर्ष,दस महीने और पंद्रह दिन।
मैं बार–बार असफल हुआ। मुझे इक्कीस बार चोटी पर चढ़ते हुए लौटना पड़ा। कभी मेरा कोई यंत्र जवाब दे गया और कभी ईश्वर द्वारा निर्मित यंत्र यानी मेरा शरीर। इस बार मैं सारे यंत्रों पर हावी रहा। खतरे इस बार भी कम नहीं थे, अकेलेपन,तेज हवाएँ ,हवाओं में टँगी चट्टानें और गुफाओं–सी खाइयाँ जहॅंा से आदमी की लाश कभी नहीं लौटी। और खतरों का क्या। घर के बाहर कदम रखो तो पैर के दोनों ओर खतरा बैठा होता है। कभी–कभी तो घर के बाहर कदम रखने की भी जरूरत नहीं होती। एकाएक आदमी पाता है कि वह अपने घर में परदेसी हो गया है और उसका घर एक सराय हो गई है।
बहरहाल, मेरे रास्ते में खतरे–ही–खतरे थे, जैसे किसी भी रास्ते में। मैं कभी भी मर सकता था, जैसे कोई भी। लेकिन मैं मरना नहीं चाहता था। मैं चोटी पर पहुँचे बिना मरना नहीं चाहता था। पहाड़ पर चढ़ने वाले जानते हैं कि पर्वतारोही की काया से छाया नहीं चिपकती, मौत चिपक जाती है। जब–तब मौत का मुँह मेरे रास्ते में आया, मेरे मुँह से ये शब्द फूटे: ‘हे मौत माँ, मुझे चोटी तक जाने दे, मैं तेरा ही बेटा हूँ।’’ वह मुसकराई। मैं ऊपर चला गया।
जिस क्षण मेरा पैर चोटी पर पड़ा, मुझे लगा था कि मेरी नीयत पूरी हो गई है, अब मुझे मरने का कोई अफसोस नहीं होगा ; किंतु अगले ही क्षण मेरा माथा ठनका। मुझे लगा,मैं किसी रास्ते पर ही मरूँगा, मेरी यात्रा कभी पूरी नहीं होगी। मैं दूर बादलों में देख रहा था। एक और चोटी थी, इस चोटी से ऊँची। मुझे उस पर चढ़ना होगा। मैं चोटी पर नाच उठा, जैसे बच्चे को नई गेंद मिल गई हो।
मैं जानता हूँ, दुनिया में गेंदों की कमी नहीं है।
 
 
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