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लघुकथाएँ - देश - श्याम सुन्दर अग्रवाल
आँगन की धूप
बारह बजे के लगभग घर के छोटे से आँगन में सूर्य की किरणों ने प्रवेश किया। धूप का दो फुट चौड़ा टुकड़ा जब चार फुट लंबा हो गया तो साठ वर्षीय मुन्नी देवी ने उसे अपनी खटिया पर बिछा लिया।
“अपनी खटिया थोड़ी परे सरका न, इन पौधों को भी थोड़ी धूप लगवा दूँ।” हाथों में गमला उठाए सम्पत लाल जी ने पत्नी से कहा।
धूप का टुकड़ा खटिया और गमलों में बंट गया।
दो घंटों तक खटिया और गमले धूप के टुकड़े के साथ-साथ सरकते रहे।
छुट्टियों में ननिहाल आए दस वर्षीय राहुल को समझ नहीं आ रहा था कि उसके नानू गमलों को बार-बार उठाकर इधर-उधर क्यों कर रहे हैं। आखिर उसने इस बारे नानू से पूछ ही लिया।
सम्पत लाल जी बोले, “ बेटा, पौधों के फलने-फूलने के लिए धूप बहुत जरूरी है। धूप के बिना तो ये धीरे-धीरे सूख जाएँगे।”
कुछ देर सोचने के बाद राहुल बोला, “नानू! जब हमारे आँगन में ठीक-से धूप आती ही नहीं तो आपने ये पौधे लगाए ही क्यों?”
“जब पौधे लगाए थे तब तो बहुत धूप आती थी। वैसे भी हर घर में पौधे तो होने ही चाहिएँ।”
“पहले बहुत धूप कैसे आती थी?” राहुल हैरान था।
“बेटा, पहले हमारे घर के सभी ओर हमारे घर जैसे एक ,मंजिला मकान ही थे। फिर शहर से लोग आने लगे। उन्होंने एक-एक कर गरीब लोगों के कई घर खरीद लिए तथा हमारे एक ओर चार मँजिला इमारत बना ली। फिर ऐसे ही हमारे दूसरी ओर भी ऊँची इमारत बन गई।”
“और फिर पीछे की तरफ भी ऊँची बिल्डिंग बन गई, है ना?” राहुल ने अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हुए कहा।
“हाँ…हमने अपना पुश्तैनी मकान उन्हें नहीं बेचा तो उन्होंने हमारे आँगन की धूप पर कब्जा कर लिया।” सम्पत लाल जी ने गहरी साँस लेते हुए कहा।
 
 
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