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लघुकथाएँ - देश - रत्नकुमार साँभरिया |
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अन्तर
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घोड़े की पीठ पर दिनभर पड़ी चाबुकें नील बनकर उभर आईं थीं। उसके एक–एक रोएँ में लहू चुहचुहा रहा था। वह टीस के मारे बार–बार पैर पटकता था, गर्दन झटकता था। घोड़ा पीठ के असहनीय दर्द को आँसुओं में बहा देना चाहता था, भूखी कुलबुलाती अंतड़ियों ने उसे चारे में थूथन गड़ाने के लिए विवश कर दिया।
एकाएक घोड़े की गीली आँखें अपने मालिक की ओर घूमीं। वह घोड़े के पास ही चारपाई डाले बैठा था और चाबुक से छिली अपनी हथेली पर मेहंदी लगा रहा था। घोड़े का मन व्यथित हो गया। उसकी आँखें डबडबा आईं। वह चारा छोड़कर थोड़ा आगे बढ़ा। घोड़ा चाबुक से आहत अपने मालिक की हथेली को अपनी नर्म–नर्म जीभ से सहलाने लगा था।
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