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लघुकथाएँ - देश - दामोदर दा दीक्षित |
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फ्लाप शो
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आतंकवादियों ने रात के अँधेरे में गाँव में प्रवेश किया। जो भी मिला, उसे ए0 के0 56 से छलनी किया और भग निकले। सिलसिला अर्से से चला आ रहा था।
मृतकों के निकटतम संबंधी को पाँच लाख रुपए और घायलों को दो लाख रुपए की अनुग्रह राशि वितरित करने के लिए मंत्री महोदय स्वयं पधारे।
आयोजन में एक मृतक की पत्नी को बुलाया गया। मंत्री ने उसकी ओर चेक बढ़ाया। स्त्री ने हाथ जोड़ लिये, ‘‘मुझे चेक नहीं, स्वर्गवासी पति चाहिए। बोलो ! दोगे?’’
मंत्री अवाक्। वह हाथ जोड़कर मंच के नीचे उतर गई।
दूसरे परिवार से एक बूढ़े को बुलाया गया। मंत्री ने आगे बढ़कर उसे चेक देना चाहा। वह बोला, ‘‘बस, दो–चार साल की जिन्दगानी है। इसके लिए मेरी खेती काफी है। आपका चेक आपको मुबारक। नहीं चाहिए मुझे बेटे की मौत के एवज में मुँह बन्द करने के रुपए।’’
तीसरे परिवार के एक प्रौढ़ व्यक्ति को मंच पर बुलाया गया। मंत्री ने उसकी ओर अनुग्रह राशि का चेक बढ़ाया। उसने नकार में गर्दन हिलायी, ‘‘मंत्री जी, नहीं चाहिए भीख। पहले मेरे भाई के हत्यारे को पकड़वाकर फाँसी चढ़वाओ। उसके बाद बात होगी। नमस्कार!’’
उसकी आँखें गुस्से से अंगार हो रही थी। नथुने फड़क रहे थे।
मंत्री को अपने गाल पर चॉटे की ‘चटाक’ सुनाई दी। हेड मास्टर साहब की याद इतने बरस बाद ताजा हुई।
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