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लघुकथाएँ - देश - वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज
असली निबन्ध
‘‘शाबाश बच्चो! मानव और मानव का धर्म विषय पर जो बतलाया, समझकर सभी ने अच्छा लिखा।’’सभी छात्र खुशी से गद्गद हो गए। तभी एक लड़का अपनी जगह पर खड़ा हो गया।
मास्टर ने यह देख पूछा, ‘‘प्रफुल्ल,’’। तुम खड़े क्यों हो?
लगभग रोता बोला प्रफुल्ल, ‘जी, मैंने निबंध नहीं लिखा।’’
‘‘क्यों, क्यों नहीं लिख?’’ झल्ला पड़े मास्टर।
‘‘जी,समय नहीं मिला।’’
‘‘झूठ,बिल्कुल झूठ! क्या करते थे घर पर जाकर?’’
‘‘मास्टरजी, पूरी ईमानदारी से कहता हूँ। आधी रात तक दादाजी के साथ जागते रहा था।’’ वे दर्द से कराह रहे थे। माँ–बाबूजी कुछ ही देर तक उनके पास रहे, फिर कमरे में सोने चले गए।’’
‘‘फिर....,’’
‘‘फिर मैं दादाजी के पास जाकर उनके हाथ–पैर दबाने लगा। जब तलबे रगड़ने लगा तो उन्हें नींद आ गई। तब ही कहीं मै। सो पाया ।’’
‘‘जब तुम्हारे माता–पिता ही सो गए थे ,तो तुम्हें क्या जरूरत थी जगने की?’’ मास्टर की इस बात पर लगभग सभी छात्र एक दबी हँसी हँस पड़े थे। मास्टर ने उनकी तरफ आँख तरेरी।
‘‘जी, कल ही तो आपने यह सब बतलाया था। ऐसा करना मैंने अपना धर्म समझा।’’
मास्टर आपादमस्तक झंकृत हो उठे। आँखें फटी–फटी जाती थीं उनकी। आत्म–विभोर हो वहीं से बाँहें फैलाए प्रफुल्ल की ओर बढ़ चले, ‘‘शाबाश बेटा, शाबाश! इतना तो मेंने भी नहीं सोचा था। अरे, यही तो सच्चा और ‘असली निबंध है।
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