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लघुकथाएँ - देश - सुभाष नीरव
इंसानी रंग
अमरीक जिस समय शर्मा जी के मकान में घुसा, बेहद डरा हुआ था और उसकी साँसें फूली हुई थीं। शर्मा जी, उनकी पत्नी और बेटी सुषमा, तीनों के चेहरों पर उसे देखते ही भय की लकीरें खिंच गईं। और दिन होता तो शर्मा जी ''आओ सरदार जी, बड़े दिनों में आना हुआ''- कहते हुए तपाक से मिलते। उनकी पत्नी और अमरीक के बीच देवर-भाभी के बीच होने वाली चुहलबाजी होती और बेटी सुषमा 'अंकल-अंकल' कहती फिरती।
शर्मा जी ने तुरन्त उठकर दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया। अमरीक हाँफते हुए बोला, ''सब स्वाहा हो गया, शर्मा जी... सब स्वाहा हो गया। किसी तरह अपनी जान बचाकर भागा हूँ, बस।''
''तुझे किसी ने देखा तो नहीं इधर आते ?'' शर्मा जी ने आगे बढ़कर धीमे स्वर में पूछा।
''मुझे नहीं मालूम...'' अमरीक ने जवाब दिया और अपनी हाँफती हुई सांसों पर काबू पाने की कोशिश करने लगा।
एकाएक बाहर शोर हुआ। शर्मा जी ने तुरन्त अमरीक को स्टोर में छिपाया और दरवाजा खोलकर मकान से बाहर आ गए।
''क्या बात है, भाई लोगो ?'' उन्होंने सामने खड़ी भीड़ की ओर देखकर पूछा। लोगों के चेहरे तने हुए थे और उनके हाथों में लाठियाँ, बरछे और किरासीन के डिब्बे थे।
''अरे, शर्मा जी, आप!'' किसी ने शर्मा जी को पहचानते हुए कहा, ''हमारा मुर्गा तो नहीं छुपा आपके मकान में ?''
''नहीं भाई, चाहो तो देख लो अन्दर आकर।''
लोगों पर शर्मा जी की बात का असर हुआ। वे लोग आगे बढ़ गए, लाठियाँ पीटते, शोर मचाते। शर्मा जी ने भीतर से दरवाजा अच्छी तरह से बन्द किया। फिर स्टोर में पहुँचकर उन्होंने अमरीक से पुन: वही सवाल किया, ''अमरीक, तुम्हें इधर आते किसी ने देखा तो नहीं था न ?''
''मुझे नहीं मालूम, शर्मा जी.... मैं तो बस भागता आ रहा हूँ।... पीछे मुड़कर मैंने देखा ही नहीं।...'' अमरीक अभी भी सहमा हुआ और भयभीत-सा लग रहा था। शर्मा जी ने उसे पानी पिलाया और माथे पर लगी चोट पर पुरानी लीर का एक टुकड़ा पानी में भिगोकर बाँध दिया।
पत्नी का संकेत पाकर वह बैठक में चले गये। पत्नी और बेटी, दोनों के चेहरे बुरी तरह डरे हुए थे।
''सुनो जी, वे फिर आ गये तो ?'' पत्नी ने घबराई हुई आवाज में कहा, ''हो सकता है, वे जबरदस्ती मकान में घुस आएँ।''
शर्मा जी को चुप देख पत्नी ने फिर फुसफुसाना शुरू किया, ''उनका क्या भरोसा ? रात होने जा रही है। जरा-सा शक पड़ते ही वे ज़रूर आएँगे। हो न हो, मकान में ही आग लगा दें।... कितनी मुश्किलों से तो बना है यह मकान।''
मकान की बात पर शर्मा जी सोच में पड़ गये। कितनी दिक्कतों और परेशानियों को झेलकर, अपना और बच्चों का पेट काट-काटकर बनवाया है मकान, अभी हाल में।
वह फिर अमरीक के पास गये। एक बार फिर पूछा, ''अमरीक, तुझे इस घर में घुसते किसी ने देखा तो नहीं न ?''
शर्मा जी की आँखों में तैरता हुआ भय अब अमरीक से छुपा नहीं रहा। उनकी पत्नी की फुसफुसाहट और माँ-बेटी के डरे हुए चेहरे देख उसे लगा, उसे यहाँ नहीं आना चाहिए था। वह बोला, ''शर्मा जी, चलता हूँ। लगता है, वे लोग दूर निकल गए हैं।''
सहसा, शर्मा जी अमरीक के आगे दीवार बनकर खड़े हो गये और बोले, ''ओय, की गल करदां ऐं अमरीकिया... मैं तैनू जाण देवांगा ?... नईं, तू नईं जाएंगा ओए, चाहे कुझ हो जाए।...''
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