एक कॉफी हाऊस के बाहर बरामदे में लगी मेज–कुर्सियों पर बैठे कुछ युवक कॉफी पीने के साथ–साथ कुछ ऊँचे स्वरों में किसी विषय पर बहस भी कर रहे थे। और बाहर मेन रोड पर एक भिखारी हाथ में कटोरा लिये भीख के उद्देश्य से खड़ा था। उन युवकों में से एक युवक, जो कुर्त्ता–पैजामा पहने था, एक सफारी–सूट पहने युवक से कहने लगा, ‘‘तुम पूँजीपति लोग! गरीबों को देखना तक पंसद नहीं करते हो! जबकि इन्हीं गरीबों की वजह से तुम लोग इस ठाठ–बाट से रहते हो। वरना....!’’
‘‘देखो! तुम गलत समझ रहे हो। बात ऐसी नहीं है।’’
‘‘तो, फिर!’’
‘‘अमीरी–गरीबी तो आदमी की अपनी ओढ़ी–बिछाई हुई है। न मैं पूँजीपति हूँ और न ही मुझे गरीबों से किसी प्रकार की कोई नफरत है।’’
‘‘यदि वाकई ऐसी बात है, तो सामने भीख माँग रहे भिखारी को जाकर गले लगाकर दिखाओ।’’
‘‘मैं उसे कुछ रुपए भीख तो दे सकता हूँ, किंतु उस गंदे भिखारी को मैं गले किसी कीमत पर नहीं लगा सकता। तुम चाहो तो जाकर उससे गले मिलो या...।’’
इतना सुनते ही वह कुर्त्ताधारी युवक लपककर उस भिखारी की ओर बढ़ गया। और जाते ही उसे अपनी बाँहों में भरकर गले से लगा लिया।
इस प्रकार युवक को अपने गले लगते देख पहले तो भिखारी कुछ घबराया, किंतु फिर कुछ सँभलते हुए बोला, ‘‘बाबू! पेट, गले लगाने से नहीं, रोटी से भरता है। और रोटी के लिए पैसा चाहिए।’’
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