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लघुकथाएँ - देश - पवन शर्मा
लँगड़ा
एकदम सन्नाटा.... कहीं–कहीं कुत्तों के भौंकने से सन्नाटा भंग हो जाता था। जहाँ– जहाँ बिजली के खंभे थे, वहाँ–वहाँ प्रकाश फैला हुआ था। बाकी जगह अँधेरा था। सन्नाटे को भंग करती उसकी बैसाखियाँ और बैसाखियों पर झूलता वह आगे बढ़ रहा था। यही....ग्यारह–बारह साल का लड़का था वह।
सामने बिजली के खंभे के प्रकाश में उसने देखा, कोई खड़ा है। मन–ही–मन घबराने लगा। लेकिन बैसाखियों पर झूलता वह आगे बढ़ रहा था। नजदीक जाकर देखा, उसी की उम्र का, मैले, कई जगह से फटे कपड़े पहने कोई लड़का है। मन थोड़ा शांत हो गया उसका।
‘‘ कहाँ से आ रहा है?’’ नजदीक आने पर लड़के ने उससे पूछा।
‘‘स्टेशन से।’’
‘‘क्या कर रहा था वहाँ अभी तक?’’ लड़के ने फिर पूछा।
‘‘कैंटिन में कप–प्लेट धो रहा था।’’ निश्चिन्तभाव से उसने उत्तर दिया और आगे बढ़ने लगा। लड़का भी उसके बराबर हो लिया।
‘‘कितना कमाया?’’ लड़के ने चलते–चलते अँधेरे में ही पूछ लिया।
‘‘सात रुपया.....सुबह से अभी तक के.....काम पूरा लिया!’’ उसका चेहरा दयनीय हो उठा।
‘‘तू झूठ बोल रहा है। सुबह से अभी तक के तो कम–से–कम दस का पत्ता होना था।’’ सामने के बिजली के खंभे के बल्ब का प्रकाश उन दोनों के ऊपर आने लगा। पीछे उन दोनों की परछाइयाँ काफी बड़ी थीं।
‘‘सच में....सात ही दिए कैंटीन वाले ने।’’ और सहज भाव से उसने हाफ पैंट की जेब में से एक–एक के मुड़े–तुड़े सात नोट दिखाए और बोला, ‘‘अम्मा बीमार थी। इस वजह से मुझे ही काम करना पड़ा आज।’’
बिजली के खंभे के निकट पहुँचकर लड़का बोला, ‘‘दिखा...गिनकर देखता हूँ.... साले काम तो करवाते हैं, लेकिन पैसे पूरे नहीं देते।’’
‘‘पूरे सात हैं।’’ उसने कहा और रुपए लड़के को थमा दिए। लड़का रुपयों को गिनने लगा। एक...और एक नोट उसको पकड़ा दिया। दो.....और नोट उसको पकड़ा दिया। तीन....फिर एक और नोट उसको पकड़ा दिया। चार....वह हाथ बढ़ा ही रहा था कि लड़का भाग खड़ा हुआ। वह चौंक गया।
‘‘ऐ...ऐ....मेरे रुपए तो देता जा!’’ बैसाखियों के सहारे यह आगे की ओर बढ़ा...लेकिन लड़का अंधेरे में खो चुका था। विवशता से इसकी आँखों में आँसू आ गए..फिर...एकाएक गुस्से से इसके चेहरे पर तनाव आ गया, ‘‘साला...लँगड़ा...साला...दोनों पैर का लँगड़ा...साला....’’
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