दाँत टूट गए थे इसलिए भी ‘वरिष्ठ’-लेखक थे. हँसते तो मुँह बुरा लगता सो बत्तीसी लगवा ली. अब न खाते बनता न निगलते. वरिष्ठ-लेखक शाश्वत दुःखी थे. कहने लगे मैंने तब लंबी कविता लिखी थी,जब मुक्तिबोध का नामोनिशान तक नहीं था !इतिहास कृतघ्न है. हिन्दी साहित्य में मुझे कोई नहीं जानता, मुक्तिबोध को सब जानते हैं, जिन्होंने मेरे बाद लंबी कविताएँ लिखी.
उस पर तुर्रा ये कि लोग नई से नई चीज़ लिख देते और वह अध्यक्ष होने की मजबूरी में सुनते. वह आलोचक भी थे, इसलिए आदतन लेखकों से कहते-इसे यों नहीं यों हो. लोग थे उनकी सलाह के बिना भी अच्छा लिख लेते. दुःख और घना हो जाता.
वरिष्ठ-लेखक अब अपनी उस बत्तीसी की तरह हैं जो पानी से भरे प्याले में ऊंघ रही है. सलाह देने का वक्त आने पर वह मुँह में फिट की जाएगी- और एक बार फिर वही बात कहेगी- यों नहीं- इसे यों लिखो!
हिन्दी-साहित्य कितना कृतघ्न है. नए लोग चुप रहेंगे. अपने मन का लिखेंगे और उनकी बजाय मुक्तिबोध को पढ़ते रहेंगे....वर्ना साहित्य समाज का दर्पण तो है ही....
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