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लघुकथाएँ - देश - सुदर्शन रत्नाकर
हेकडी

मित्रों के साथ होटल में उसने अपने जन्मदिन का जश्न मनाया । खाना , डांस मौज मस्ती करके वह बाहर निकला ।उसकी कार पार्किंग में थी। देखा तो वह पंक्चर थी । अब क्या करे?मित्र सब विदा हो चुके थे। इस समय वह स्टेप्नी बदलने के मूड में नहीं था ।देर रात हो चुकी थी।सिक्योरटी गार्ड को कह कर वह बाहर निकला ।घर अधिक दूर पर नहीं था। उसने सोचा वह रिक्शा लेकर घर चला जाएगा।
कितनी दूर तक वह चलता रहा पर कोई रिक्शा उसे दिखाई ही नहीं दी ।थोड़ी दूर ओर चलने पर उसे दो रिक्शा खड़ी दिखाई दीं । उसने पास आकर पूछा ," चलोगे भैया ।"
" क्यों नहीं सवारी के लिए ही तो इस ठंड में खड़े हैं ।"
" चलो फिर "
" कहाँ जाओगे साब"
"सुभाष चौक,कितने पैसे लोगे?”
" बीस रुपये। "
"बीस रुपये तो दहुत अधिक हैं,सामने ही तो चौक है, आधा रास्ता तो मैं पैदल चल कर आ गया हूँ । दस रुपये ठीक हैं ।"
नहीं दस रुपये में नहीं जाने का "
उसने दूसरी रिक्शा वाले से पूछा । उसने भी बीस रुपये माँगे । उससे भी उसने दस रुपये लेने के लिए कहा पर वह भी नहीं माना । बोला," साब इतनी मँहगाई में पैसे की कीमत ही क्या रह गई है। दो वक्त की रोटी ही मुश्किल से निकल पाती है ।"
" अरे भई चलना है तो चलो ,भाषणबाज़ी क्यों करने लग गए हो । दो टके के आदमी मुँह क्यों लगते हो,"उसने गुस्साते हुए कहा ।
"नहीं साब मेरे को नहीं जाना ।"
उसने फिर पहले वाले से पूछा -उसने इन्कार करते हुए रिक्शा आगे बढ़ा दिया।
दूसरा वहीं खड़ा रहा ।
" अच्छा पंद्रह रुपये ले और चल ।‘’
‘’नहीं साब ,हम को नहीं जाने का । हम दो टके का आदमी ज़रूर है; लेकिन इज्जत हमारी भी है। मेहनत करते हैं और खाते हैं, आपका चौक पास ही है पैदल चले जाओ’’ -कहकर वह पाँव फैला कर रिक्शा पर लेट गया ।
पैदल घर जाने के सिवा उसके पास अब कोई उपाय नहीं था ।
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