तीर से बिंधी जीभ बाहर लटक आई थी। खून टप्–टप् चू रहा था। भौंकने की बजाय कुत्ता रोता–रींगता वापस आ रहा था। द्रोणाचार्य की नज़र पड़ी तो स्तब्ध रह गए– किसने यह दुर्गति की? शिष्यो! अजुर्न कहाँ है? वे लगभग चीख से पड़े।
‘‘गुरु–वंदना लिख रहा है, देव।’’ कौरवों ने खबर दी।
‘‘बुलाओ उसे......तत्काल! तुम लोग भी चलो साथ। पता लगाना होगा किसने की दुष्टता इस प्राणी के साथ।’’
जंगल बीच जहाँ कुत्ता रुका, एक काला–कलूटा भील बालक तीरंदाजी का अभ्यास कर रहा था।
‘‘तुमने इसकी यह दशा की है?’’ द्रोणाचार्य ने डांट पिलायी। ‘‘हाँ गुरुदेव, यह भौक–भौंक मेरी साधना में खलल डाल रहा था।’’
कौन है तुम्हारा गुरु?
‘‘आचार्य द्रोण,’’ भील बालक ने श्रद्धा से माथा झुका दिया।
‘‘पर मैंने तो तुम्हें कभी कोई शिक्षा नहीं दी,’’ आचार्य कड़े रहे।
‘‘क्या प्रमाण है?’’
एक एकलव्य ने पास ही रखी मिट्टी की प्रतिमा को दिखाया–‘‘यहमेरे आचार्य की मूर्ति जिसससे मैं शिक्षा पाता हूँ।’’
‘‘मेरी मूर्ति?’’ द्रोणाचार्य चौंके–‘‘इतनी टिया , यह तो किसी बहेलिये की लगती है।’’
‘‘क्षमा करें गुरुदेव, आप उस दिन मुझे जैसे दिखे उसे उतारने की ही कोशिश की थी,’’ एकलव्य साष्टांग प्रणाम करने लगा।
‘‘बदतमीज़ कही के, गाली देते हो! शिष्यो! घेर लो इसको, काट लो इसके दोनों अँगूठे।’’
‘‘पर गुरुदेव, दायें हाथ का अँगूठा ही दक्षिणा में पर्याप्त होगा,’’ एकलव्य गिड़गिड़ाया।
‘‘एक दक्षिणा और एक दंड,’’ गुरुदेव क्रोध की प्रतिमा बने थे।
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