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लघुकथाएँ - देश - प्रेमपाल शर्मा
मैम साहब की दया

घर की सफाई धुलाई के साथ–साथ मैम साहब की मालिश करके दरवाजे की ओर कदम बढ़ाती बाई रिंरियाती–सी बोली–‘‘मैम साहब कुछ पैसे?’’
उसकी आँखें बाहर निकली पड़ रही थी और दयनीय चेहरा हँसने की कोशिश के बावजूद साफ हो रहा था। आवाज से जाहिर था इस वाक्य को बोलने से पहले कई बार रिहर्स की गयी होगी।
‘‘पैसे? कौन से पैसे? मैम साहब बालों को खोलकर आरामकुर्सी पर थीं। अखबार में नज़रें गड़ाए।’’ अभी तो पहले भी नहीं पूरे हुए।
‘‘घ र से मां और बहन आ गई हैं।’’ कुछ भी नहीं खाने को। रात को जैसे–तैसे कुछ चावल उबाल लिए थे। अब उधार भी नहीं देंगी कोई?’’
‘‘राजेश से क्यों नहीं मांगती तू। वह तेरा आदमी है न। तो क्यों नहीं देता?’’
‘‘नहीं देता मेम साहब। मैं क्या करूँ। कहता है काम ही नहीं मिलता।’’
‘‘कितना समझा लिया कहता है तुझे नहीं रहना तो जा। जहाँ जाना हो। बच्चों को भी साथ ले जा।’’
मैम साहब कुछ सोचकर झटके से उठीं, ‘‘अब तो तू ले जा। आगे से ध्यान रखना। हमारे पास लुटाने को नहीं है?’’
दोपहर को बाई आयी और काम पर जुट गई। उसे चेहरे पर अभी भी माँ, बहन का अनायास आया बोझ, पति की अकर्मण्यता और मैम साहब की डांट के रंग पुते हुए थे।
‘‘रात की सब्जी, कुछ चावल है जि मे। जाते वक्त उसे ले जाना।’’
‘‘आज मेरा व्रत है मेमसाहब।’’
आये दिन व्रत रखती है। दम तो तुझमें है नहीं। कपड़े कैसे गंदे धोती है। अच्छा ये केले रखे हैं इन्हें ले जाना। भूखी आत्मा का पाप न जाने किस पर पड़ेगा। ‘‘और सुन दुआ देना मेरे बच्चे के इम्तिहान के लिए।’’
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