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लघुकथाएँ - देश - पूरन मुद्गल
बाहर–भीतर

विद्यार्थी मन्दिर जा रहा था। उसके भीतर बैठा विद्यार्थी उसके साथ हो लिया, पूछा–‘कहाँ जा रहे हो?’
‘तुम जानते ही हो, मैं पिछले वर्ष परीक्षा में नकल करता पकड़ा गया था और फेल हो गया था।’
‘इस बार परिश्रम करो, पास हो जाओगे।’
‘नहीं, इस बार मैं मन्दिर में प्रसाद चढ़ाऊँगा ताकि इस वर्ष नकल का केस न बने।’
‘मन्दिर जाते दुकानदार ने मन में कहा–‘मैं भगवान से अरदास करूँगा कि मिलावट के अपराध में चल रहे मुकदमें में मेरी जीत हो।’
उसके भीतर का आदमी बाहर आ गया, कहा–‘अच्छा हो तुम भविष्य में मिलावट न करने का प्रण करो।’
‘नहीं इसकी जरूरत नहीं है। भगवान बड़े दयालु हैं।’
मन्दिर की ओर जाता कदम बढ़ाता हुआ कर्मचारी सोच रहा था–‘भले पुलिस ने मुझे रिश्वत लेते रंगे हाथों पकड़ लिया है, मैं भगवान से बाइज्जत बरी होने के लिए विनती करूँगा।’
उसकी बात सुनकर भीतर के इंसान का दम ुटने लगा। बाहर आकर कहा–‘तुम अपना अपराध स्वीकार क्यों नहीं कर लेते?’
‘तुम बहुत भोले हो। भगवान पतित पावन हैं। भीड़ पर अपने भक्तों की रक्षा करता हैं।’
वे तीनों मन्दिर जा रहे थे।
‘वे तीनों भी, जो उनसे अभी–अभी जुदा हुए थे, छाया की तरह उनके पीछे चल पड़े।
वे तीनों मन्दिर में चले गए।
‘वे तीनों’ मन्दिर के बाहर खड़े रहे।
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