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लघुकथाएँ - देश - डॉ. सुरेंद्र मंथन
सिफारिश

–सुना है , आजकल तुम्हारी खूब चलती है। हमारा भी एक काम करा दो न, मंत्री जी से।
–क्यों नहीं? वैसे एक बात है। बार-बार जाना अच्छा नहीं लगता। जानते ही हो, अभी-अभी अपना तबादला रद्द करवाकर आ रहा हूँ। अगला सोचेगा…
–यह खूब कही तुमने। भलेमानुस, ये लोग तो काम करके खुश होते हैं। छोटी बात है क्या, यूनिवर्सिटी में टॉप किया आदमी हाथ बाँधे इनके आगे-पीछे घूमता फिरे।
–क्या बात करते हो यार? मंत्री जी वैसे आदमी नहीं हैं। मजाल है जो किसी का एक पैसा भी खर्च होने दें। अपनी कार पर बिठाएँगे…
–कार भी तो इन्हें हमारे-तुम्हारे वोटों से ही मिली है…
–तुम कुछ भी कहो। कभी आराम करते नहीं देखा उन्हें। तीन-तीन फोन लगे हैं घर में। आदमी जानदार है। आउट आफ द वे जाकर भी काम करवा देता है। मैं तो यार, हमेशा के लिए बिक गया।
–वैसे तुम्हारा तबादला हुआ कैसे था?
–मेरी जगह लेडी-टीचर आ गयी थी।
–किसके ज़ोर पर?
–सिफारिश तो यार उसकी भी इसी ने की थी।
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