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लघुकथाएँ - देश -उर्मि कृष्ण
मैं दुर्गा हूँ

जब से उसका पति परदेस गया है उसके लिए मंगल कामना करने वह नित्य ही पास के दुर्गा देवी के मंदिर जाती है।
उस सुंदर युवती के आने से पहले ही पंडितजी वेदी के सामने की भीड़ छँटवा देते हैं। वह प्रेम श्रद्धा से देवी -आराधना करती हैं और पंडितजी के प्रति भी अपना आभार व्यक्त करती हैं। इतनी व्यस्तता के बाद भी वे उससे पूजा–पाठ करवाने का समय निकाल लेते हैं। प्रतिदिन पंडितजी जैसा विधान बतलाते हैं ,वह वैसी ही पूजा की तैयारीके साथ आती है।
जब तक वह आँख मूँद देवी आराधना करती है ;तब तक पंडितजी निर्विघ्न एकटक उसका रूपरस पान करते हैं।
एक माह से पति का कोई संदेशा न आने से व्याकुल राधा, मंदिर में तीन–तीन बार आने लगी है। आज तो वह बड़े तड़के मंदिर में पूजा के लिए पहुँच गई थी। यह आदेश भी पंडितजी का ही था। उसके खुले बाल कंधे और चेहरे पर छितरा रहे थे। इतने तड़के मंदिर में कोई और भक्त तो था नहीं। पंडितजी ने राधा से पूजा करवाई। पूजा आरती के बाद उन्होंने कई बहाने उसका स्पर्श कर लिया। अंत में प्रसाद देते समय राधा की फैली गोरी हथेलियों और रंगबिरंगी चूडि़याँ भरी कलाइयों को देख पंडितजी अपने पद की गरिमा मिट्टी में मिला बैठे। प्रसाद हाथ पर रखते ही उन्होंने राधा के दोनों हाथ पकड़ लिये–तुम साक्षात् देवी हो।
क्रोध से फुँकारती राधा हाथ छुड़ा एकदम खड़ी हो गई-‘’पंडितजी मैं चलती–फिरती दुर्गा हूँ। मंदिर में बैठी प्रतिमा नहीं।”

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