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लघुकथाएँ - देश -पुष्पा चिले
यथार्थ

जय चमचमाती गाड़ी से उतरा। बाहर दालान में उसने अपने जूते उतारे और कॉलबेल बजाई। दरवाजा खुला तो सामने बड़ी मालकिन को देख उनके चरण स्पर्श किये ।
‘‘कैसी हो माताजी?’’
‘‘कौन हो? हमने पहचाना नहीं।’’
‘‘जयराम हूँ माताजी। धनौती बाई का लड़का। घर में सब राजी–खुशी हैं? भैया–भाभी, बच्चे वगैरह?’’
‘‘हाँ, हाँ सब अच्छे हैं। धनौती कैसी है?’’
‘‘बढि़या है माताजी।’’
‘‘कुछ काम है क्या?’’
‘‘माताजी नयी गाड़ी लाया हूँ। सबसे पहले आपको बिठाना चाहता हूँ। चलिए आपको शिव मन्दिर ले चलूँ।’’
‘‘ना बेटा, हमारी तबियत ठीक नहीं है। अपनी अम्मा को ले जाओ।’’
जय ने बहुत निवेदन किया। बताया कि अम्मा की इच्छा है कि सबसे पहले गाड़ी में आपके चरण पड़ें। पर गायत्री मिश्रा नहीं गईं। जय मायूस होकर लौट गया। सिया कमरे में बैठी सब सुन रही थी।
‘‘काकी, कितनी मिन्नतें कर रहा था बेचारा। कहती भी रहती हो कि घर में बैठे बैठे ऊब गए हैं। आपको जाना था।’’
गायत्री का चेहरा गुस्से से तमतमा गया।
‘‘और क्या? यही तो बचा है अब करने को! जो हमारे दरवाजे से जूता पहनकर नहीं निकल सकते थे वे अब कार लेकर आने लगे। देखो तो उसकी हिम्मत, हमसे कहता है गाड़ी में बैठिये । इसी धीमर की गाड़ी बची है हमें बैठने को! तुम्हारे कक्का होते तो साले को जूता
मारते।’’
सिया चुपचाप अपने घर चली आई। काकी से कुछ कहना बेकार है। वे हमेशा अतीत में जीती हैं। वर्तमान में कितना परिवर्तन हो गया है यह कभी स्वीकार नहीं कर पातीं। अपने पूर्वजों की माल–गुजारी गाथा गाती रहती हैं।
जय उनकी पुरानी नौकरानी धनौती का बेटा है। प्रतिभावान है। इंजीनियर हो गया है। जब से नौकरी लगी उसने माँ का घर–घर काम करना बन्द करवा दिया। आज कार लेकर आया। काकी को इतना सम्मान दिया परन्तु काकी ने अपनी हेकड़ी में उसका दिया सम्मान ही ठुकरा दिया। दूसरी ओर काकी के दोनों बेटे आए दिन माँ का तिरस्कार करते रहते हैं। बहुएँ जली–कटी सुनाती रहती हैं। बड़े लड़के ने अस्सी फीसदी खेती जुये में गवाँ दी। छोटा बेटा गंवाता तो कुछ नहीं पर कमाता भी कुछ खास नहीं। बस दाल–रोटी किसी तरह चल रही है। एक –एक रुपये को मोहताज रहती हैं। तीनों लड़कियाँ अपनी ससुराल में बहुत परेशान हैं। एक बिटिया जबरदस्त आर्थिक तंगी में दिन काट रही है। दूसरी शराबी पति से पिटती रहती है। तीसरी के पति ने दूसरी बीवी रख ली है। बड़ी बहू को अकसर पागलपन के दौरे पड़ने लगे हैं। छोटी बहू का विकलांग बच्चा माँ–बाप का जीवन नरक बनाये है।
लोग दबे–छिपे चर्चा करते हैं कि यह सब मालगुजारी जीवन में किये गए पूर्वजों के अत्याचारों ये वं उनके द्वारा किये गए गरीबों के शोषण का फल है। काकी बड़े दर्प से सुनाती हैं-‘‘अरे मजाल थी किसी की जो हमारे दरवाजे के सामने से जूते पहनकर निकल जाये । एक बार धनौती का बाप दबे पाँव जूते पहने निकल रहा था। दरबान ने देख लिया। उसे पीटते हुए दद्दा जी के पास लाया। जब दद्दाजी ने पूछा-‘‘कायरे, हिम्मत कैसे हो गई तोरी जूता
पहर के निकरबे की?’’
‘‘मालक, पाँव में घाव हो गए हैं, धरती में धरतों नयी बनत।ये ई से पनइयाँ पहर लई थीं।’’
‘‘तैं घिसटके भी तौ निकर सकत तौ। खबरदार जो अब कबउं ऐसी गल्ती करी। जुरबाने में तोरे एक बोरा गेहूँ कटहें।’’
ऐसा दबदबा था हमारे ससुर का।
एक दिन धनौती आई।
‘‘मालकिन, जयराम की बहू आ गई है। आपको आशीर्वाद देने घर आना है। मकान भी बनवा लिया है जय ने। आपके चरण पड़ जाते तो झोपड़ी पवित्र हो जाती।’’
वह सिया को भी आमंत्रित कर गई। सिया के बहुत समझाने पर दूसरे दिन गायत्री और सिया धनौती के घर गईं।
बड़ा सुन्दर बंगला बनवाया था जय ने। गायत्री विस्फारित नेत्रों से देखती रह गई। धनौती और जय ने दोनों की खूब आव–भगत की। जब बहू मिलने आई तो गायत्री को चक्कर- सा आ गया। बहू और कोई नहीं गायत्री के चचेरे भाई की लड़की थी।
धनौती ने बताया कि दोनों साथ में नौकरी करते हैं। दोनों का प्रेम हो गया तो कोर्ट से शादी कर ली।
लौटते समय गायत्री का चेहरा लटका हुआ था।
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