गाँव में रहने वाली सिन्हा जी की माताजी बेटे के बहुत मनुहार पर कुछ दिनों के लिए बेटे के पास शहर आई थीं। गाँव से तो वह अच्छी–खासी, भली–चंगी आई थीं लेकिन यहाँ आने के बाद तीसरे ही दिन अचानक बीमार पड़ गईं। श्रीमती सिन्हा की परेशानी अब यह थी कि
बीमार सासु जी की देखभाल कैसे हो। वह खुद सुबह छह बजे बिस्तर छोड़तीं, बच्चों का टिफिन तैयार करतीं और उन्हें नहला, धुलाकर स्कूल भेजतीं, फिर पतिदेव के लिए नाश्ता, खाना तैयार करतीं। नौ बजे वे ऑफ़िस के लिए निकलते। उसके बाद सासुजी व बच्चों के लिए दोपहर का खाना तैयार कर के फ़्रिज़ में रखतीं फिर जल्दी–जल्दी दो–चार कौर
खाकर और दो पराँठे डिब्बे में रखकर वह अपने ऑफ़िस के लिए भागतीं। घर छोड़ने से पहले इसी व्यस्तता में समय निकालकर बीमार सासु जी को दूध, दवा और नाश्ता–पानी भी देना होता था।
घर से आठ बजे सुबह के निकले बच्चे लगभग तीन बजे स्कूल से लौटते थे। वे जल्दी–जल्दी कपड़े बदलते, खाना खाते और कोचिंग के लिए निकल पड़ते। लाख जल्दी करतीं श्रीमती सिन्हा को ऑफ़िस से लौटते–लौटते शाम के छह, साढ़े छह बज ही जाते थे। बच्चे भी लगभग उसी समय कोचिंग से लौटते थे और सिन्हा जी के लौटने का तो कोई समय ही नहीं था। वह जिस दिन बहुत जल्दी लौटते सात, साढ़े सात तक वरना कभी–कभी तो साढ़े आठ, नौ भी बज जाते थे। बीमार बूढ़ी माताजी घर में अकेली रहतीं। सारे दिन वह चुप, सुस्त और निढाल पड़ी रहतीं। न ठीक से न खाना खातीं न सोतीं। डाक्टर उनकी बीमारी पकड़ नहीं पा रहे थे और अनुमान के आाधर पर जो दवाइयाँ दे रहे थे वह असर नहीं कर रही थीं। श्रीमती सिन्हा को सारे दिन सासु जी की चिन्ता लगी रहती थी।उन्होंने काम वाली महरी से कह रखा था कि वह आते–जाते दिन में एक –दो बार माताजी का हालचाल ले लिया करो।
एक दिन शाम को ऑफ़िस से लौटने पर श्रीमती सिन्हा ने पाया कि घर में बाहर से ताला बंद था। खुली खिड़की से अन्दर झाँका तो माता जी का बिस्तर खाली पड़ा था। किसी अनहोनी की आशंका से सिहर उठीं वह। पल भर के अन्दर ही न जाने कितने प्रकार की आशंकायें कौंध गयीं उनके मन में। घबड़ाहट में सिन्हा जी को फोन किया। ओ घंटे के अन्दर वे भी भागे–भागे आ पहुँचे। इस बीच उन्होंने अड़ोस–पड़ोस के घरों में पूछताछ कर ली लेकिन
माताजी के बारे में सभी ने अनभिज्ञता जताई। समझ में नहीं आ रहा था कि इस अनजान शहर में माताजी आखिर गईं तो कहाँ गईं।
‘‘ऐसा करते हैं, चलकर महरी से पूछते हैं कि वह दिन में माताजी को देखने आई थी या नहीं।’’ सिन्हा जी ने सुझाया।
‘‘महरी तो इस समय अपने घर पर होगी नहीं… काम पर गई होगी। फिर भी चलो देखते हैं।’’ श्रीमती सिन्हा ने कहा और पति–पत्नी कॉलोनी के पिछवाड़े, नाले के किनारे बसी झुग्गी बस्ती की तरफ भागे। पूछते–पूछते वे महरी के घर पहुँचे तो देखा कि माताजी वहाँ तख्त पर महरी के तीनों बच्चों को लिये बैठी थीं और न जाने किस बात पर माताजी और वे तीनों बच्चे खूब खिलखिलाकर हँस रहे थे। माताजी के चेहरे पर ऐसी चमक सिर्फ़ उस दिन दिखी थी जिस दिन वह गाँव से आई थी।
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