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लघुकथाएँ - देश -रामकुमार आत्रेय
टूटी चूडि़याँ

करवाचौथ था उस दिन। पत्नी ने उस दिन पूरी श्रद्धा के साथ व्रत रखा था। नई साड़ी, नया ब्लाउज पहनने के साथ–साथ उसने हार–शृंगार भी पूरे मनोयोग के साथ किया था। उस दिन रात में पति ने उससे प्यार करना चाहा तो उसने हाथ जोड़ते हुए पति को ऐसा करने से मना किया। उसका तर्क था कि उसने व्रत रखा है और वह उस रात पवित्र बने रहना चाहती है। पति ने उसे मूर्ख, अनपढ़, गँवार ये वं अंधविश्वासी कहकर लताड़ लगाई। पत्नी चुप बैठी सुनती रही पर पति के साथ सोने को तैयार नहीं हुई। आखिर में उसे पति के इस तर्क के सामने हथियार डाल देने पड़े कि यदि उसने व्रत पति की खुशी ये वं दीर्घ आयु के लिए
रखा है तो उसे पति को खुश करना चाहिए ; नहीं तो उसका व्रत एवं हार– शृंगार झूठ एवं पाखंड के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। पत्नी मन से नहीं पर देह से उसके साथ लेट गई।
पति अपनी ताकत के बल पर पत्नी के इस अनमनेपन को तोड़कर उसकी देह को जाग्रत करना चाह रहा था। इस बीच चटक–चटक की आवाज के साथ पत्नी के हाथ की दो चूडि़याँ टूट गईं। पत्नी रोने को हो गई थी। उसने पति से प्रार्थना की कि वह तुरन्त उसे वहाँ से उठ जाने दे।
पति की गुर्राहट पत्नी से पूछ रही थी कि अब ऐसी कौन- सी आफत आन पड़ी जिसकी वजह से वह उसे प्यार के बीच में ही दूर हटने के लिए कह रही है। गुर्राहट जारी थी। अब वह प्यार किए बिना नहीं रुकेगा। तुम्हें तो कभी प्यार करना ही नहीं आया न ही सीखोगी। कभी फूटे मुँह से यह नहीं कहा आज तक कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ और तुम्हारे बिना मर जाऊँगी। पता नहीं किस मिट्टी की बनी हो तुम। एक पेट भर जिन्दा मादा पशु।
पत्नी की गिड़गिड़ाहट ने उसे समझाने का प्रयास किया कि चूड़ी टूटना बहुत बड़ा अपशकुन होता है। उसे पति चाहिए हमेशा–हमेशा के लिए प्यार नहीं। इसलिए वह उसे तत्काल छोड़कर दूर हट जाए ताकि वह नहा–धोकर प्रभु से प्रार्थना कर सके कि उसका पति सही–सलामत रहे और वह खुद पति के मरने से पहले मर जाए ।
पति अपनी देह के उफान के शान्त हो जाने के पश्चात् ही उससे दूर हुआ। दूसरी चारपाई पर जाने से पहले उसे दो–चार भद्दी गालियाँ देने से भी नहीं चूका था।
पति दूसरी चारपाई पर लेटते ही खर्राटे भरने लगा। पत्नी रोती हुई चारपाई से उठी, स्नानघर में जाकर ठंडे पानी से नहाकर, धुले कपड़े पहनकर अपनी चारपाई पर आ बैठी। लेटने का मन नहीं हुआ। नींद का नामोनिशान कहीं आस–पास भी नहीं था। टूटी चूडि़याँ सीधे दिमाग से होकर कलेजे में जा घुसी थीं और वह दर्द उसे कचोट रहा था। सारी रात यूँही बैठी रही। आँखें थक जातीं तो रोना छोड़ देती। थोड़ी देर बाद फिर रोने लगती।
पति नींद पूरी होने के बाद उठा। दिन निकल चुका था। सूर्य की रोशनी खिड़की की राह से भीतर आ रही थी। उसकी दृष्टि पास की चारपाई पर बैठी पत्नी पर पड़ी। उसकी आँखें अब भी गीली थीं। गालों पर आँसुओं के बहने के निशान बने हुए थे। पति से रहा नहीं गया। पूछ बैठा-‘‘सारी रात से यूँ ही बैठी हो?’’
पत्नी चौंक उठी। मानो नींद से जागी हो। फिर दौड़कर पति को बाँहों में भरते हुए बुदबुदाई.‘‘पिया जी, मैं तुमसे प्यार करती हूँ...मैं तुम्हारे बिना जी नहीं पाऊँगी...मेरे लिए अभी बाजार जाकर नयी चूडि़याँ लाओ...!’’
वह फूट–फूटकर रोए जा रही थी। पति अचंभित–सा उसे देखे जा रहा था।
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