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लघुकथाएँ - देश -शाशिभूषण मिश्र
इस्सरबा का स्कूल

गाँव की प्राथमिक पाठशाला में कक्षा 4 में पहुँचने तक ही ‘इस्सरवा’ को मालूम हो गया था कि वह ‘ईश्वरदीन’ नहीं ‘इस्सरवा’ है। किशोर मन इस्सरवा के बोध के स्रोतों से होते हुए यह बात उसके अन्दर तक घर कर गई थी कि वह ‘ईश्वरदीन’ कहलाने लायक नहीं है। पाठशाला के हेडमास्टर की कर्कश और बेस्वाद आवाज उसके कानों में गूँजती रहती थी, ‘‘न रे इस्सरवा! कहाँ मरि गए ससुर, कुरसी और टेबुल तोर बाप साफ करै के खातिर आई...?’’ इन खूँखार शब्दों की आहट इस्सरवा के शरीर में एक अजीब सी झन्नाहट पैदा कर देती। गाँव के पटवारी नर्मदा प्रसाद का लड़का सूरज इस्सरवा की ही कक्षा में पढ़ता था। नयी बुशर्ट, इस्त्री की हुई पैंट की धारदार चिकनाहट के साथ हरक्युलिस साइकिल में उसका
रोज बड़े रौब से आना सभी देखते थे। अपने रुतबे के कारण टाट पर सबसे आगे बिल्कुल हेडमास्टर की टेबल के पास बैठना उसका अधिकार था। आज ‘इस्सरवा’ थोड़ा पहले स्कूल पहुँच गया था। भीतर वाले कमरे से टाट बाहर लाकर रोज की तरह बिछाई और अपना बस्ता सबसे पहले रख हेडमास्टर की खटारा साइकिल पोंछने लगा। अपनी पूरी शक्ति लगाने के बावजूद, वह उस भुतही साइकिल को चमचमा देने की हेडमास्टर की इच्छा को कभी पूरा नहीं कर पाया। बड़े जतन से टेबुल–कुरसी साफ करते हुए हेडमास्टर की मुस्कान भरी आकृति देखने को ललचाता सा निहार रहा था। ‘वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्त्तव्य मार्ग पर डट जाएँ’ की ईश वन्दना के बाद जब वह अपनी जगह पर पहुँचा तो उसका बस्ता उसे गायब मिला। खोजने के क्रम में धूल से सना औंधे मुँह अपना बस्ता देख उसे अपनी गलती तुरन्त याद आई कि आज उसने हेडमास्टर की साइकल को पोंछने की जल्दी में अपना बस्ता आगे रख दिया था। अन्दर ही अन्दर वह अपने से ही सवाल कर रहा था कि आखिर मेरी क्या गलती, मैं तो मास्टर जी की साइकल पोंछने गया था, बस्ता झाड़ते हुए पीड़ा की एक गहरी टीस उसके मन के कोमल तंतुओं को झंकृत कर गयी। प्रतिरोध की एक चिंगारी ने उसे शक्ति दी और इसी शक्ति से इस्सरवा डरते कदमों से ही पर हेडमास्टर के पास तक पहुँचा गया, ‘‘गुरुजी, हमार बस्ता सूरज...’’ कुछ और बोलता कि हेडमास्टर ने बेशरम की संटी उठाई और उसे पीटते हुए बोले, ‘‘या सरकार ससुरी सब सत्यानास कै दिहिस। इनका इतना बढ़ाय दिहिस कि मूड़े के ऊपर बैठे के कोसिस करत हैं। कइसन जमाना आयगा... भैंस चरावै जाते ता कुछ कमाय लेते... बड़ा चला आवा है पढ़इया....’’
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