कहानियाँ पेड़ों पर नहीं लगतीं। न ही ये आसमान से टपकती हैं। कहानियाँ तो अक्सर हमारे आप-पास बिखरी हुई होती हैं, लेखक का काम मात्रा इतना होता है कि, वह इन कहानियों में से, अपनी मन-पसन्द कहानी चुन ले, उन्हें शब्दों का लिबास पहना दे और पाठकों को सौंप दे।
मुझे कहानियाँ अक्सर अजीब स्थानों पर तलाश लेती हैं। कई कहानियाँ तो चिपक ही जाती हैं और कागजों पर उतरे बिना मानती ही नहीं। अब देखिए न, यह कहानी कल से मेरे पीछे पड़ी है। पीछे क्या पड़ी है ? जनाब ! भूत की तरह, मेरे सिर पर सवार है, जब तक इसे लिख न डालूँगा, यह पीछा छोड़ने वाली नहीं है। हुआ यूँ कि कल मैं अपने मित्रा सहकर्मी मिगलानी साहिब के ससुर, वधवा जी की क्रिया पर गया था। मैं वधवा साहिब को नहीं जानता था, पर आप जानते ही हैं कि भारतीय समाज में ऐसी औपचारिकता निभानी ही पड़ती है।
वधवा साहिब, बेचारे सेवानिवृत होने से मात्रा दो महीने पहले स्वर्गवासी हो गए और शायद उनका सपना भी, बिल्कुल मेरे जैसा सपना कि सेवानिवृत होकर, बिना काम किए सरकारी पेंशन लेकर (जैसे तन्ख्वाह तो हम काम करके लेते हैं) घर वालों की छाती पर मूंग दलूँगा, साकार नहीं हो सका। सरकारी नौकर एक इसी आस में तो इतने लम्बे, साठ साल जी लेता है, जनाब। खैर! मैं कह रहा था कि, वधवा साहिब सेवानिवृति से दो महीने पहले ही चल बसे थे। क्रिया का कार्यक्रम चल रहा था, भजन वगैरा के बाद उनके बड़े लड़के को पगड़ी बाँधी जा रही थी। ऐसे वक्त तक लोग गरुड़ पाठ, श्रद्धांजलियाँ आदि सुनते-सुनते ऊब चुके थे, वे इस लिए भी ऊब चुके थे कि बोलना, लगभग हर वक्त बिना रुके बिना सोचे-समझे, बिना आगा-पीछा देखे बोलना, सभी हिन्दुस्तानियों का कम से कम हम पंजाबियों का तो जन्मसिद्ध अधिकार है ही।
उधर वधवा साहिब के बड़े बेटे को पगड़ी बाँधी जा रही थी, इधर इस कहानी ने मुझे टहोका। यह कहानी एक बुजुर्ग के वेश में थी, जो वधवा साहिब के हम उम्र रहे होंगे। वे मेरी ओर मुखातिब होकर बोले, ‘‘चलो टन्टा मिट्या।’’ मैं चूंकि उनको जानता नहीं था, इसलिए चुप रहने में ही गनीमत समझी। पर जनाब! उनकी जीभ पर मंथरा सरीखी यह कहानी कब मुझे छोड़ने वाली थी ? वे कहने लगे, ‘वधवा बेचारा ! बड़ा परेशान सी इस बडे मुंडे तौं—(वधवा इस बड़े लड़के से बड़ा परेशान रहता था) । असल में साहब जी, वधवा जी दे दोनों मुंडे नौकरी नहीं लगे थे, इसलिए उन्होंने फंड (प्रोविडेन्ट फंड) से उधार लेकर किरयाने की दुकान खुलवा दी थी! हुण (अब) छोटा मुंडा तां फिर भी वधवा की तरह मेहनती है, ईमानदार है, उसकी मेहनत से ही दुकान चल पड़ी थी। अब यह निखट्टू दसवीं फेल, उन्होंने पगड़ी बंधवाते बड़े लड़के की तरफ इशारे करते हुए कहा, ‘‘रोज लड़ता था कि यह दुकान मेरी है, आप (वधवा साहिब) छोटे की और दुकान करवा दो, पर बेचारे वधवा जी कहाँ से इतना पैसा लाते ? फंड पहले ही ले चुके थे।’’
कल रात ही, सारा झगड़ा निबटा है जो काम वधवा जी जीते जी नहीं कर सके, वो उन्होंने मरकर कर दिखाया और वह चुप हो गये। अब तक मेरी दिलचस्पी भी कुछ-कुछ सिर उठाने लगी थी। मरता क्या न करता? पूछ बैठा -जनाब कल रात किस तरह झगड़ा निबटा ?
‘ओ हो, जनाब बंटवारा हो गया ना’- वह फिर चुप हो गए। मुझे फिर पूछना पड़ा, ‘बँटवारे में क्या हुआ?’ जी होणा की सी (जी, होना क्या था) बड़े दसवीं फेल मुंडे दे हथ, दुकान लगी ते बी.ए. पास छोटे मुंडे नू वधवा जी दी नौकरी मिल जाएगी। इह फैसला किता है पंचों ने, बिरादरी ने (बड़े दसवीं फेल लड़के के हाथ दुकान आ गई है बँटवारे में तथा छोटे बेटे को वधवा साहिब की जगह नौकरी मिल जाए यह फैसला किया है पंचों ने) । मैं भौंचक्क रह गया था, इन अनोखे बँटवारे पर।
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